हनुमान जी सूर्य को कैसे निगल गए थे?

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बाल समय रवि भक्षि लियो तब तिनहु लोक भयौ अँधियारा …..

युग सहस्त्र योजन पर भानु, लिल्यों ताही मधुर फल जानु ……..

तुलसीदास जी की ऐसी पंक्तियों से जन सामान्य में एक धारणा बन गई है कि हनुमान जी ने सूर्य को निगल लिया था। तुलसी दास जी ने भी ये पंक्तियाँ अपने मन से नहीं लिखा होगा, कहीं-न-कहीं उन्हें भी ये संदर्भ मिला होगा।

इस संबंध में कई तरह के विचार दिए जाते हैं। कुछ लोगों के अनुसार हनुमान जी भगवान थे, वे कुछ भी कर सकते थे, भगवान के कार्यों में तर्क बुद्दि नहीं लगानी चाहिए। दूसरे मत के अनुसार उनको सिद्धि प्राप्त थी, तीसरे मत के अनुसार यह सभी बकवास है, ये हो ही नहीं सकता, चौथे मत के अनुसार, सूर्य को खाने-पीने की बातें छोड़ो ये तो देखो इसमें जो युग सहस्त्र योजन पर भानु बताया गया है, वह सूर्य से धरती की लगभग सटीक दूरी बता रहा है, इत्यादि।

लेकिन सूर्य को खा जाने वाली बाते सबसे पहले किस ने लिखी? कालक्रम के अनुसार हनुमान जी का पहला वर्णन वाल्मीकि कृत रामायण में है। रामायण में हनुमान जी के बचपन का कोई जिक्र नहीं है। उनसे राम-लक्ष्मण की पहली भेंट सीता की खोज करने के क्रम में होती है। वहाँ वे दोनों हनुमान जी की बुद्धिमता, वाक चातुर्य और भाषा संबंधी ज्ञान देख कर उनसे प्रभावित होते हैं।

रामायण में हनुमान द्वारा सूर्य को निगलने से संबन्धित चर्चा केवल तीन श्लोकों में है जो कि जांबवंत द्वारा हनुमान से कहा गया है। ये श्लोक किष्किंधा कांड  ले 66वें सर्ग के श्लोक संख्या 21, 22 और 23 हैं। ये श्लोक जाम्बवंत तब कहते हैं जब सीता की खोज के क्रम में वानर दल समुद्र तट तक पहुँच गए थे। संपाती से उन्हें यह पता चल चुका था कि सीता लंका में ले जायी गई थी। लेकिन अब प्रश्न यह था कि सौ योजन समुद्र पार कर लंका जाए कौन? किसी के भी छलांग लगाने की क्षमता इतनी नहीं थी कि वह समुद्र पार कर वापस आ सके। इसी क्रम में जांबवंत हनुमान को उनकी शक्ति की याद दिलाते हैं।

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ये श्लोक इस तरह हैं:

अभ्युत्थितं ततः सूर्यं बालो दृष्ट्वा महावने।

फलं चेति जिघृक्षुस्त्वमुत्प्लुत्याभ्युत्पतो दिवम् ॥२१॥

‘बाल्यावस्था में एक विशाल वन के भीतर एक दिन उदित हुए सूर्य को देखकर तुमने समझा कि यह भी कोई फल है; अतः उसे लेने के लिये तुम सहसा आकाश में उछल पड़े।

शतानि त्रीणि गत्वाथ योजनानां महाकपे।

तेजसा तस्य निर्धूतो न विषादं गतस्ततः ॥२२॥

‘महाकपे! तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई।

त्वामप्युपगतं तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।

क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन तेजसा ॥२३॥

‘कपिप्रवर! अन्तरिक्ष में जाकर जब तुरंत ही तुम सूर्य के पास पहुँच गये, तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर तेज से प्रकाशित वज्र का प्रहार किया।

इन श्लोक से आशय तो यह है कि जाम्बवंत हनुमान का उत्साह वर्धन करते हुए कहते हैं, जब तुम बचपन में सूर्य को फल समझ कर उसे खाने के लिए उसकी तरह तीन सौ योजन छलांग लगा दिए थे, तो अब सौ योजन समुद्र पार करना कौन सी बड़ी बात है।

300 योजन को अगर आजकल के किलोमीटर में कन्वर्ट करें तो होगा लगभग 4000 किलोमीटर। हालांकि यह संभव है कि उस समय के योजन की माप में और आजकल के माप में अंतर हो। क्योंकि श्रीलंका से भारत की न्यूनतम दूरी वर्तमान में 18 किलोमीटर है जबकि रामायण में 100 योजन बताया गया है। वर्तमान में भी प्रचलित जमीन मापने की इकाई बीघा, कट्ठा आदि है जिसके माप देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होते हैं। 

फिर भी अगर हम आज कल के माप को माने तो हनुमान जी सूर्य की तरफ 300 योजन या लगभग 4000 किलोमीटर गए थे। यह दूरी सूर्य से बहुत कम है। ये तीनों श्लोक सूर्य की तरफ छलांग लगाने की बात करते हैं, सूर्य को खाने की नहीं।

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जो लोग कहते हैं कि हनुमान जी को सिद्धि प्राप्त थी, वे भूल जाते हैं कि सिद्धियों की भी एक सीमा होती है। अगर असीम सिद्धि मान भी लें तो यह सिद्धियाँ भी उन्हें सूर्य की तरफ छलांग लगाने और इन्द्र द्वारा उन पर वज्र प्रहार के बाद ही मिली थी। वे बलवान तो थे लेकिन कोई सिद्धि या वरदान उनको उस समय तक प्राप्त नहीं था।

तो कहते हैं न …. बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएगी, कभी-कभी सूर्य की तरफ जाने की बात सूर्य तक भी पहुँच जाती है।

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