अपनी निर्दोष पत्नी को, जिसकी निर्दोषिता पर राम को पूर्ण विश्वास था, को किसी और के कहने मात्र से निर्वासित कर देना– यह राम पर लगा एक कलंक है। इस पर हर युग में अपने-अपने तरह से बहुत कुछ लिखा गया है।
इस संबंध में दो तथ्य ध्यान रखने की है:
पहला, बहुत से शोधकर्ता संपूर्ण उत्तर काण्ड को या उसके अधिकांश भाग को मूल रामायण का भाग नहीं मानते। वे इसे प्रक्षिप्त अंश मानते हैं।
दूसरा, राम ने कभी सीता का परित्याग नहीं किया। उन्होंने उन्हे अपने महल से निकाला लेकिन जीवन से नहीं। अगर वे चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे। उस समय यह मान्य प्रथा भी थी। राम को अनेक राजा अपनी पुत्री देने के लिए तैयार थे। लेकिन साथ नहीं होने पर भी वे अपनी पत्नी का स्थान सीता को ही देते रहे। धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों में जहाँ पत्नी की आवश्यकता होती, वहाँ उनकी स्वर्ण प्रतिमा राम के साथ रखी जाती थी।
वर्तमान में वाल्मीकि रामायण में सीता के निर्वासन का प्रसंग इस तरह है:
सीता जी द्वारा गंगा तट जाने की इच्छा प्रकट करना
वन से आने के बाद राम का राज्याभिषेक हुआ। वे कौशल जनपद के राजा बने और सीता महारानी के पद पर अभिषिक्त हुईं। राजकीय और प्रसाशनिक कार्यों में अधिक व्यस्तताओं के कारण राम अब पत्नी सीता को कम समय दे पाते थे। लेकिन जब भी उन्हें समय मिलता वे दोनों अंतःपुर में सीता जी के महल के पास बने अशोक वनिका नमक सुंदर उपवन और उससे लगे महल में रमण करते और गीत-संगीत द्वारा अपना मनोरंजन करते। इस तरह उन दोनों का राजाओं के अनुकूल सुखपूर्वक जीवन व्यतीत हो रहा था। सीता गर्भवती हुईं। राम ने इस पर बहुत प्रसन्नता व्यक्त किया।
इसी वनिका में एक दिन राम-सीता दोनों प्रसन्नता पूर्वक बैठे वार्तालाप कर रहे थे। राम ने समय अभाव की अपनी विवशता बताते हुए सीता से उनकी कोई इच्छा पूछी। सीताजी ने गंगा किनारे रहने वाले ऋषिपत्नियों से मिलने की इच्छा जताया। उनसे मिलकर एक रात वहाँ रह कर वे लौट आती। राम जी ने हामी भर दी।
राम को सीता के विषय में प्रजा में अपयश का पता चलना
दोनों में जब इस तरह बातें हो ही रही थी तभी सेवक ने आकर मध्यखंड में उनके कुछ मित्रों के आने की सूचना दी।
अशोक वनिका से एक गली उनके महल के मध्य खंड में जाती थी। राम अपने मित्रों और सलाहकारों से यहीं मिलते थे। ये सभी उनके विशेष मित्र होते थे, जो गुप्तचरों का कार्य भी करते थे।
राम तुरंत ही सीता से विदा लेकर उसी गली होते हुए मध्य खंड में पहुँचे। वहाँ आए उनके विशेष गुप्तचर मित्रों की बातों से उन्हें ऐसा लगा कि वे कुछ छुपा रहे थे। राम ने उन्हें सत्य कहने के लिए प्रेरित किया। तब कुछ संकोच के साथ भद्र नमक गुप्तचर ने उन्हें बताया कि नगर के लोग वनवास के दौरान उनके किए गए कार्यों की तो प्रशंसा करते हैं। पर इस बात के लिए खेद और आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि उन्होंने बहुत दिनो तक किसी पराए पुरुष के घर में रह कर आई हुई स्त्री को अपनी पत्नी कैसे स्वीकार कर लिया।

सीता के त्याग का निश्चय
भद्र के मुँह से यह बात सुनकर राम बहुत व्यथित हुए। उन्होंने उन सभी को जाने की आज्ञा दे दी और अपने तीनों भाइयों को बुलाने के लिए सेवक भेजा। तीनों भाइयों के आने पर राम ने उन्हें सारी बात बता कर बताया कि पत्नी सीता के कारण उन्हें प्रजा में अपयश हो रहा था, इसलिए उन्होंने सीता को अपने राज्य से निर्वासित कर देने का निश्चय किया था।
उनका यह कठोर निश्चय सुन कर तीनों भाइयों को बहुत दुख हुआ। लेकिन ये बताते समय स्वयं राम की आँखों में आँसू और भावों में दृढ़ता देख कर वे कुछ बोल नहीं सकें। राम ने लक्ष्मण को आदेश किया कि वे अगली सुबह सीता को उनके राज्य की सीमा पर गंगा किनारे ऋषि वाल्मीकि के आश्रम के पास छोड़ आएँ। लक्ष्मण जी द्वारा सीता जी को गंगा तट पर छोड़ना
सुबह होने पर लक्ष्मण ने सीता से कहा कि राम ने उन्हें गंगा किनारे ले जाने का आदेश दिया था। सीता को पिछली शाम को राम से हुई बातें याद आ गई। उन्हें लगा राम ने गंगा किनारे ऋषियों पत्नियों से मिलने की इच्छा पूरी करने के लिए लक्ष्मण को कहा था। अतः वे बड़े खुश और उत्साह से तैयार हो कर रथ पर आ गईं। साथ में उन्होंने ऋषि पत्नियों को देने के लिए बहुत-से उपहार भी ले लिया था। सुमंत्र रथ चला रहे थे।
लेकिन जैसे ही सीता उत्साह से रथ में सवार हुईं, उन्हें अपशकुन होने लगे। लक्ष्मण भी बड़े दुखी नजर आ रहें थे। उनके द्वारा उत्साह से उपहारों के विषय में बताने पर भी लक्ष्मण शांत और दुखी ही रहे। इससे कुछ देर के लिए तो उन्हें थोड़ी आशंका हुई। लेकिन फिर भगवान को प्रणाम कर वे विदा हो गईं।
दोपहर तक रथ कोशल जनपद की सीमा पर गंगा नदी के तट पर पहुँच गया। लक्ष्मण, जो रास्ते भर चुपचाप थे, नदी को देखते ही फफक-फफक कर रो पड़े। सीता को उनके रोने का कारण समझ में नहीं आया। वें उन्हे सांत्वना देती रहीं। लक्ष्मण ने आँसू पोंछे और नदी पार करने के लिए नाव बुलाया। जब दोनों गंगा नदी पार कर उसके दूसरे तट पर आ गए, तब लक्ष्मण फिर सीता के सामने हाथ जोड़ कर रोने लग गए।
जब लक्ष्मण ने रोते-रोते कहा कि ऐसे निर्दय आदेश के पालन से अच्छा थे उन्हें मृत्यु आ जाती, तब सीता को आश्चर्य और आशंका दोनों एक साथ ही होने लगा। लक्ष्मण ने उन्हें बताया कि उनके पति राम और स्वयं लक्ष्मण को उनकी पवित्रता पर पूर्ण विश्वास था। लेकिन प्रजा में फैले अपयश के कारण उनके पति राम ने उनका परित्याग कर उन्हें गंगा तट पर वाल्मीकि ऋषि के आश्रम के पास छोड़ देने का आदेश दिया था।
सीता की प्रतिक्रिया
यह बात सीता के लिए कल्पनातीत थी। पहले तो वे आश्चर्यचकित रह गईं। फिर रोते हुए कहने लगी कि वे ऋषि पत्नियों को क्या कहेंगी पति ने किस अपराध में उनका परित्याग किया था। रघुकुल का वंश बीज उनके गर्भ में होने के कारण वे गंगा में समा कर अपना जीवन भी समाप्त नहीं कर सकती थी।
इसी तरह बहुत रोने और विलाप करने के बाद सीता ने स्वयं को थोड़ा दृढ़ किया और लक्ष्मण जी से आपने राजा और बड़े भाई राम के आदेश का पालन करने के लिए कहा। उन्होने यह भी कहा कि अगर उनके कारण उनके पति की बदनामी होती है, तो उनका पतिव्रत धर्म यह है कि वे स्वयं पति से दूर हो जाए।
लक्ष्मण रोते हुए नाव से वापस लौट आए। सीता वहीं खड़ी रह गईं। दोनों पीछे मुड़ कर एक-दूसरे को बार-बार देख रहे थे। जब लक्ष्मण का रथ दृष्टि से ओझल हो गया तब सीता वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगी। इधर लक्ष्मण भी उनकी दृष्टि से ओझल रह कर चुपचाप रुक कर उन्हें देख रहे थे।
वाल्मीकि ऋषि द्वारा सीता को आश्रय देना
जहाँ सीता जी बैठ कर रो रही थीं, वहीं पास में ही कुछ मुनि बालक खेल रहे थे। उन्होंने जाकर वाल्मीकि जी को यह बताया। वाल्मीकि ध्यान लगा कर देखने पर सब कुछ समझ गए। वे शीघ्र ही सीता के पास पहुँचे।
वाल्मीकि ने सीता का स्वागत करते हुए कहा कि वे जानते हैं कि वे सर्वथा निर्दोष हैं। राम ने अपयश के भय से उनका परित्याग किया है। वे उनके संरक्षण में सम्मानपूर्वक रह सकती थीं।
लक्ष्मण ने जब सीता को वाल्मीकि जी के साथ जाते देखा तो उन्हें संतोष हुआ कि वे सुरक्षित हाथों में पहुँच चुकीं थीं। इसके बाद ही सुमंत्र ने उनकी आज्ञा से अयोध्या के लिए रथ हाँका।
वाल्मीकि के आश्रम के पास ही एक आश्रम था। यहाँ मुनि पत्नियाँ रहा करती थीं। वाल्मीकि सीता जी को लेकर उसी आश्रम में गए। उन मुनि पत्नियों को सीता जी का परिचय देकर उन्हें प्रेम और आदर से अपने आश्रम में अपने साथ रखने के लिए कहा।
इसके बाद अयोध्या की रानी गर्भवती सीता उन्ही मुनि पत्नियों के साथ वाल्मीकि आश्रम के पास ही तपस्विनी की तरह रहने लगीं। समय आने पर यहीं उन्होंने दो पुत्रों को जन्म दिया।
प्रजा के एक व्यक्ति या कुछ लोगों के कहने पर अपनी निर्दोष गर्भवती पत्नी को इस तरह अनाथ की तरह छोडने के कारण राम को आज तक कठघरे में खड़ा किया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने वाले राम के इस कार्य के आधार पर कुछ लोग उन्हें, और उनके बहाने संपूर्ण हिन्दू धर्म को ही महिला विरोधी साबित करने का प्रयास करते हैं। जब कि दूसरी तरफ कुछ लोग उन्हें प्रजातन्त्र और राजा के कर्तव्य का आदर्श भी मानते हैं।
लेकिन अगर कोई वाल्मीकि कृत रामायण, जो की राम के विषय में मूल ग्रंथ है, को पूरा पढ़े तो सीता की अग्नि परीक्षा और निर्वासन के वैश्य में दृष्टिकोण बदल जाएगा। इस संबंध में कुछ तथ्य ध्यान में रखने वाला है:
1. आदेश सीता को ऋषि वाल्मीकि के आश्रम के पास छोड़ने के लिए था, किसी भी वन में नहीं। कोशल जनपद के सीमा पर स्थित वाल्मीकि आश्रम से अयोध्या राज परिवार का पुराना और घनिष्ठ संबंध था।
2. जब से सीता हरण हुआ, राम ने हमेशा उनकी कुशलता के लिए ही चिंता की। आश्रम में बिखरे फलों को देखने के बाद, जटायु-रावण युद्ध स्थल में उनके बालों के फूलों को बिखरे देखने के बाद, रिष्यमुक पर्वत पर उनके आँचल के टुकड़े को देखने के बाद या प्रवर्षण पर्वत पर बरसात के मौसम बीतने की प्रतीक्षा करते समय, जब भी राम सीता के लिए दुखी होते हैं, तब यही कहते हैं, पता नहीं सीता किस हाल में होगी? वह इतनी भीरु थी, उस पर क्या बीत रही होगी? उसके बिना मैं घर लौटूंगा तो उसके पिता को क्या जवाब दूंगा? कहीं भी हो, अगर जीवित हो तो मैं उसे ले आऊँगा, इत्यादि। हनुमान जब लंका में बंदिनी सीता के दुखों का वर्णन करते हैं तो राम जल्दी-से-जल्दी जाकर उन्हें इससे मुक्ति दिलाना चाहते हैं। युद्ध जीतने के बाद वे हर्ष के साथ हनुमान को सीता के पास यह सूचना देने के लिए भेजते हैं। पूरे प्रसंग में कहीं भी यह लेशमात्र भी आभास नहीं होता है, कि उन्हें सीता से वितृष्णा हो गई हो कि वह किसी पर-पुरुष के पास है। किन्तु जैसे ही सीता उनके पास लायी जाती है, अचानक उनमें नाटकीय परिवर्तन हो जाता है। यह नाटकीयता केवल 16 श्लोक में है। इसके बाद फिर पहले की तरह ही सब कुछ हो जाता है।
3. अग्नि परीक्षा से तुरंत पहले जब सीता राम के पास लायी जा रही थी, तब राम ने स्त्रियों के लिए पर्दा का बहुत समर्थन नहीं किया।
4. अहल्या एक दूसरी उदाहरण थी। उन्होने अपने पति से छल किया था। लेकिन राम ने उसके पैर छूए थे।
5. सुग्रीव की पत्नी रुमा को बाली ने अपनी पत्नी बना कर रख लिया था। इसी कारण से राम ने बाली को छलपूर्वक मारने को न्यायसंगत बताया। इस पूरे प्रकरण में कहीं भी उनका यह विचार नहीं आया कि जो स्त्री किसी और पुरुष के पत्नी की तरह रही हो, उसे सुग्रीव फिर अपनी पत्नी कैसे स्वीकार करें। राम ने तारा और रुमा दोनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। इससे बहुत कम “अपराध” के लिए राम अपनी पत्नी को कैसे अपमानित कर सकते थे?
6. केकैयी दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। स्त्री को युद्ध में भेजने का साहस आज भी कई देश नहीं कर पाते। इसके पीछे डर यह होता है, कि “अगर वह युद्धबंदी बना ली गई तो… … ।” लेकिन अयोध्यावासी और रघुवंशी उस समय इतना हिम्मत रखते थे। यही अयोध्यावासी बलपूर्वक बंदिनी बनाई गई सीता को केवल इस कारण कलंकित करते, यह विश्वसनीय नहीं है।
7. कौशल्या को अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए 1000 गाँव मिले हुए थे। यह भी सिद्ध करता है कि रधुकुल में स्त्रियों का सम्मान होता था।
8. राम तड़का, शूर्पनखा आदि जैसी राक्षसियों को भी इस कारण मारना नहीं चाहते थे कि वे स्त्री थीं।
9. .वे अपनी माता ही नहीं बल्कि पिता की सभी पत्नियों को माता के समान ही आदर देते थे। पूरे रामायण में कहीं भी यह ऐसा कोई वर्णन नहीं है कि राम ने किसी स्त्री को सम्मान नहीं दिया हो। भले ही वह किसी वर्ण या स्थान की ही क्यों न हो। शबरी तो उनकी भक्त थी, लेकिन उन्होने तो रावण की पत्नी मंदोदरी के सम्मान का भी पूरा ध्यान रखा था।
10. राम साहस और अद्भुत युद्ध कौशल के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी रखते थे। अपने दिव्य अस्त्रों को गुरु के घर में रखना, विश्वामित्र से दिव्य अस्त्र-शस्त्र पाना, खर-दूषण से युद्ध के पहले सेना का निरीक्षण और रणनीति, लंका पर चढ़ाई से पहले ऊँचे पर्वत पर चढ़ कर नगर की बनावट का रणनीतिक निरीक्षण करना इत्यादि साबित करता है कि वे अपने कार्यों के प्रति हमेशा सावधान रहते थे। उन्हें स्वाध्याय का भी शौक था। शिक्षा के लिए गुरु आश्रम जाने से पहले स्वाध्याय द्वारा ही बहुत से ज्ञान अर्जन का उल्लेख है। एक ऐसा व्यक्ति ऐसा अतार्किक विचार कैसे रख सकता था कि “पतिव्रता स्त्री अग्नि-रोधी हो जाती है”।
11. यह हो सकता है कि बाद के दिनों में जब स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। तब उन्हें डरा का नियंत्रण में रखने के लिए अग्नि, जल आदि से परीक्षा की बात हुई हो। (साक्षी देने के लिए इस तरह के परीक्षा के कुछ उल्लेख मध्यकाल में हैं।) इसी समय अपनी बातों को अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए सीता के अग्नि परीक्षा की बात गढ़ ली गई हो।
12. अनेक शोधकर्ताओं और भाषाविदों ने उत्तरकाण्ड और सीता की अग्नि परीक्षा और निर्वासन जैसे प्रसंगों को प्रमाणों के आधार पर रामायण का मूल भाग नहीं बल्कि बाद में जोड़ा गया (प्रक्षिप्त अंश) माना है।
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