सिर पर एक सिंग वाले शृंगी ऋषि कौन थे?

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ऋषि ऋष्यशृंग का अन्य नाम शृंगी ऋषि भी था। इस नाम का कारण यह था कि जन्म से ही उनके सिर पर हिरण की तरह का एक शृंग (सिंग) था। इन्होंने युवा होने तक किसी स्त्री को नहीं देखा था। इनका विवाह भगवान राम की गोद दी हुई बड़ी बहन शांता से हुआ था। इनके सिंग होने और स्त्री नहीं देखने के पीछे विविध ग्रंथों (वाल्मीकि रामायण और पुराण) में कई तरह की कथा है।

शृंगी ऋषि का कुल

      प्रजापति ब्रह्मा जी के पौत्र थे ऋषि कश्यप। कश्यप के पौत्र विभाण्डक बहुत बड़े तपस्वी थे। उन्होने वन में रह कर घोर तपस्या किया। उनकी तपस्या से घबड़ा कर इन्द्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा उर्वशी को भेजा। विभाण्डक उर्वशी के सौंदर्य जाल में फंस कर उससे प्रेम करने लगे।

ऋष्यशृंग का जन्म

      विभाण्डक-उर्वशी को एक पुत्र हुआ जिसके सिर पर एक सिंग था। एक कहानी यह भी है कि उर्वशी को देख कर विभाण्डक का वीर्य स्वखलित हो गया जिसे उन्होने नदी जल में डाल दिया। इस जल को एक हिरनी ने पिया। जिससे वह गर्भवती हो गई। हिरनी के गर्भ से जन्म लेने के कारण बच्चे के सिर पर सिंग था।

      जो भी हो, लेकिन सिंग के कारण उस बच्चे का नाम शृंगी या ऋष्यशृंग रखा गया। बच्चे के जन्म तक उर्वशी का कार्य सिद्ध हो चुका था। विभाण्डक ऋषि की तपस्या खंडित हो चुकी थी।  अतः वह उन्हें छोड़ कर चली गई।

ऋष्यशृंग का पालन-पोषण

      उर्वशी द्वारा छल और उन्हें छोड़ कर जाने से विभाण्डक ऋषि बहुत दुखी हुए। उन्हें समस्त स्त्री जाति से घृणा हो गई। उन्होंने यह निश्चय किया कि वे अपने पुत्र को स्त्रियों से दूर रखेंगे।

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      विभाण्डक अपने पुत्र ऋष्यशृंग को लेकर एक द्वीप स्थित घोर वन में चले गए। वहीं आश्रम बना कर दोनों पिता-पुत्र तपस्या करने लगे। विभाण्डक ने इस बात का ध्यान रखा कि उनका पुत्र किसी स्त्री को देख नहीं पाए। इसलिए उनका बाहरी दुनिया से संपर्क ही नहीं होने दिया। समय बीतता गया। ऋष्यशृंग युवा हो गए। लेकिन उन्होने अपने पिता को छोड़ कर किसी अन्य व्यक्ति को नहीं देखा था। इसलिए उन्हें स्त्री जाति के अस्तित्व और स्त्री-पुरुष भेद का कुछ भी पता नहीं था।

अंग देश में अकाल

      विभाण्डक ऋषि के घोर तपस्या से अंग देश में भयंकर अकाल पड़ गया। अंग देश की सीमा उस वन से लगती थी जहाँ विभाण्डक तपस्या कर रहे थे। अंग देश के राजा रोमपाद (जिसका अन्य नाम चित्ररथ भी था) ने अपने देश के विद्वानों को बुलाकर अकाल का कारण और इसे खत्म करने का उपाय पूछा।

      विद्वानों ने अंग देश की सीमा पर विभाण्डक ऋषि के घोर तपस्या को अकाल का कारण बताया। उपाय यह सुझाया गया कि अगर ऋषि की तपस्या भंग दिया जाय तो बारिश हो सकती थी।

      अब प्रश्न था कि उनकी तपस्या कैसे भंग किया जाय। क्योंकि वे क्रोध में आकर शाप दे सकते थे। इसके लिए यह सुझाव दिया गया कि अगर उनके पुत्र ऋष्यशृंग को किसी तरह अंग देश ले आया जाय तो उनके पिता की तपस्या भंग हो जाएगी। इस कार्य के लिए कुछ सुंदर नर्तकियों को भेजा गया।

ऋष्यशृंग का अंग देश आना

      अंग राज रोमपाद द्वारा भेजी गई नर्तकियाँ विभाण्डक ऋषि के आश्रम के पास पहुँचीं। जब ऋषि आश्रम में नहीं थे वे ऋष्यशृंग से मिलीं। ऋष्यशृंग ने जीवन में पहली बार एक ऐसे “व्यक्ति” को देखा जिसकी शारीरिक बनावट आवाज, रूप आदि उनके स्वयं के और उनके पिता से अलग था। वे बड़े विस्मित हुए।

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      नर्तकियों ने उनसे मित्रता कर ली। वे उन्हें अपने साथ नौका विहार के लिए ले गई। स्वादिष्ट भोजन कराया। सांसारिक बातों से बिल्कुल अनजान ऋष्यशृंग के लिए यह सब अद्भुत था। अतः वे भी उनकी बातों में आ गए। वे नर्तकियाँ उन्हें लेकर अंग देश आ गई। ऋष्यशृंग के अंग देश आते ही वहाँ बारिश हो गई। राजा ने अपनी पुत्री राजकुमारी शांता का विवाह ऋष्यशृंग से कर दिया।

ऋष्यशृंग का विवाह

      इधर विभाण्डक जब लौटे और आश्रम में अपने पुत्र को नहीं देखा तो वे चिंतित हो गए। ध्यान कर उन्होने जान लिया कि किस तरह उनके भोले-भाले पुत्र को अंग देश ले जाया गया था। वे क्रोधित होकर अंग देश पहुँचे।

      राजा रोमपाद इसके लिए तैयार थे। उनका स्वागत उनकी पुत्रवधू शांता ने किया। अपने पुत्र और पुत्रवधू को देख कर उनका क्रोध शांत हो गया। शांता रोमपाद की गोद ली हुई पुत्री थी। वह जैविक रूप से रोमपाद के मित्र और संबंधी (साढ़ू) अयोध्या के राजा दशरथ की पुत्री थी। विवाह के बाद ऋष्यशृंग-शांता अंग देश में ही रहते रहे। उन दोनों को एक पुत्र भी हुआ।

राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ

      जब अयोध्या के राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया तो इसके पुरोहित बनने के लिए सबसे उपयुक्त ऋषि ऋष्यशृंग ही माने गए। उनके आमंत्रण पर ऋष्यशृंग अपनी पत्नी के साथ अयोध्या गए और सफलतापूर्वक यज्ञ सम्पन्न कराया।

      इस यज्ञ के बाद ऋष्यशृंग-शांता दोनों वन में तपस्या करने चले गए। ऋष्यशृंग की गिनती भारत के महान ऋषियों में होती है। वर्तमान ऋषिवंशी राजपुत्र (राजपूत) अपनी उत्पत्ति इसी युगल से मानते हैं। शांता को यद्यपि अपने चार महान भाइयों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली लेकिन त्याग, तपस्या, सत्य, ज्ञान और अन्य सद्गुणों में वह अपने महान परिवार की परंपरा के अनुरूप ही थी। 

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