दशहरे में रावण का पुतला जलाने की परंपरा संभवतः सैकड़ों या फिर हजारों सालों से रही है। होली से पहले होलिका को जलाते हैं। रावण हो या होलिका, एक व्यक्ति के रूप में हमारे बीच नहीं हैं, उनसे हमें कोई खतरा नहीं है। तो फिर उन्हें जलाना क्यों? वास्तव में, पर्व-त्योहारों, परम्पराओं और कहानियों द्वारा किसी विचार का संवहन पीढ़ी-दर-पीढ़ी किया जाता है।
जिस रावण और होलिका को जलाया जाता है, वे व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचार हैं, एक प्रतीक हैं। यह अलग बात है कि कुछ लोग इन परंपरागत खलनायकों का महिमामंडन भी करने लगे हैं। होलिक को राजकीय आदेश के अधीन रहने वाली एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक के रूप में देखा जाने लगा है। इसी तरह रावण को भी कुछ लोग नायक मानने लगे हैं। यह वास्तव में तथ्यों के आधी-अधूरी जानकारी के कारण होता है।
इस आलेख में रावण पर विचार करते हैं। सबसे पहले देखते हैं कि दोनों पक्षों के तर्क क्या हैं और इन तर्कों के आधार कौन से हैं।
रावण को नायक मनाने वालों का तर्क
1. रावण ने सीता का अपहरण किया था लेकिन उनके साथ जबर्दस्ती नहीं किया;
2. उसने अपनी बहन शूर्पनखा के अपमान का बदला लिया; इसलिए सोशल मीडिया पर कई लोग राखी के समय रावण जैसे भाई की इच्छा भी जताते हैं;
3. वह बहुत विद्वान था, राम के कहने पर लक्ष्मण उससे ज्ञान प्राप्त करने गए थे जब वह मृत्यु के निकट था, उसने उन्हें ज्ञान दिया भी था;
4. राम ने लंका विजय के लिए जो पूजा किया उसमें रावण ने आचार्य की भूमिका निभाया था और यह जानते हुए कि उसका आशीर्वाद उसके ही हितों के विरुद्ध होगा, उसने राम को जीत का आशीर्वाद दिया था। वह एक आदर्श आचार्य/विद्वान था।
रावण को बुराइयों का प्रतीक मनाने वालों का तर्क
1. सीता रावण की एक मात्र पीड़िता नहीं थी, बल्कि वह अंतिम थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब वह देवताओं को युद्ध में हरा कर वापस लौट रहा था, तब उसने रास्ते में पड़ने वाले अनेक अन्य राज्यों पर भी आक्रमण किया। उन राज्यों के राजाओं ने अपनी पराजय और रावण की अधीनता स्वीकार कर लिया। फिर भी उन राज्यों की अनेक स्त्रियों को वह जबर्दस्ती उठा लाया। इनमें से कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी थीं जिनके गोद में दूध पीते बच्चे थे। उसने बच्चों को अलग कर दिया। माँ और बच्चा दोनों रोते रहे लेकिन वह बलपूर्वक माँ को ले गया।
जो युद्ध नहीं कर रहा हो, शरणागत हो, या कमजोर हो, उस पर प्रहार करना भारत में हमेशा अधर्म माना जाता रहा है। युद्ध में भी स्त्रियों और बच्चों पर कभी बल प्रयोग नहीं किया जाता था। राम ने हमेशा इस नीति का ध्यान रखा। लेकिन रावण ने ऐसी स्त्रियों का अपहरण किया था जिसके परिवार जन या राजा पहले ही उसकी अधीनता मान चुके थे।
2. पुष्पक विमान पाने के लिए रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर पर हमला कर उससे विमान छीन लिया था।
3. अपनी बहन शूर्पनखा, जिसके सम्मान के लिए सीता हरण का तर्क दिया जाता था, के पति को रावण ने स्वयं अपने हाथों से इसलिए मार डाला था कि उसका राज्य रावण के दिग्विजय के रास्ते में पड़ता था। वह रावण के खून-खराबे वाली नीति को पसंद भी नहीं करता था।
4. अपने सौतेले भाई कुबेर की बहू के साथ उसने क्रूरतापूर्वक दुष्कर्म किया था। उसके चोटों को देख कर ब्रह्मा जी को इतना क्रोध आ गया कि उन्होने रावण को शाप दे दिया कि अगर आज के बाद किसी स्त्री को उसकी मर्जी के बिना वह छूएगा तो तत्काल उसके सिर के टुकड़े हो जाएंगे और उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसी शाप के कारण इसके बाद उसने कोई ऐसा कार्य नहीं किया। रावण ने अपनी राजसभा में इस शाप और सीता को बलपूर्वक नहीं अपनाने का यह कारण बताया था।
5. सीता को उसने अपनी अच्छाई के कारण नहीं बल्कि सीता की जिद के कारण अशोक वाटिका में रखा था। सीता को जब अपहरण कर लाया तब उन्हें पहले अपने रनिवास में ले गया। जबर्दस्ती उन्हें अपना सारा राजमहल दिखाया ताकि उसका वैभव देख कर सीता जी उसकी बात मान लेती। लेकिन सीता उसे दुत्कारती ही रही। साथ ही उन्होने खाना पीना छोड़ दिया। उन्होने अन्न जल छोड़ कर प्राण दे देने का प्रण कर लिया। इस स्थिति में रावण ने उन्हें रनिवास से लगे अशोक वाटिका में रखवा दिया। लेकिन सीता जी वहाँ भी रावण के राज्य का अन्न-जल ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुई। अंततः देवताओं के सहयोग से बिना खाए-पिए वह वहाँ जिंदा रहीं।
अशोक वाटिका में रखते समय उन्हें अपनी पत्नी बनने के प्रस्ताव पर विचार के लिए एक साल का समय देते हुए रावण ने कहा कि अगर उन्होने उसकी बात को नहीं माना तो जिस दिन एक साल पूरा हो जाएगा, उसके अगली सुबह को उसके रसोइये उनका मांस कलेवा में पका देंगे। इस एक साल की अवधि के बीच भी उसके द्वारा नियुक्त रक्षक दासियाँ सीता का तरह-तरह से उत्पीड़न करती थीं। कभी-कभी वह खुद भी आ कर उन्हें धमकी देता था। ऐसे ही एक दिन रावण और उसकी राक्षसी सीता को पीड़ा दे रही थीं जब हनुमान वहाँ थे और उन्होने अपनी आँखों से सब कुछ देखा।
6. रावण को अपने परिवार और संबंधियों की भी चिंता नहीं थी। विभीषण पहले भी उसके इन कार्यों को देख कर दुखी होते और उसे समझाने का प्रयास करते। दिग्विजय के बाद जब बहुत सी रोती हुई स्त्रियों के लेकर लंका आया था तब भी विभीषण ने इस अन्याय का विरोध किया था। दूसरे भाई कुंभकर्ण भी सीता हरण को गलत बताते हुए उसे बहुत डांटा था। नाना माल्यावन्त को भी इसीलिए दरबार में अपमानित किया कि वह उसके गलत कार्यों का विरोध करता था। अपने एक संबंधी मारीच को उसने मार डालने की धमकी देकर स्वर्ण मृग बनने के लिए मजबूर किया जिससे वह सीता का हरण कर सके। हालांकि रावण और मारीच दोनों ही जानते थे कि इसमें मारीच की मृत्यु निश्चित थी। पत्नी मंदोदरी को उसने कभी सम्मान नहीं दिया।
7. रावण ने अपने राज्य, प्रजा एवं समस्त परिवार को नष्ट करवा दिया, राज्य को अनावश्यक युद्ध में धकेल दिया जिसका कारण नितांत निजी था। राम के विपरीत अपने निजी स्वार्थ को उसने राज्य से हमेशा ऊपर रखा।
8. रावण के ज्ञान एवं शक्ति ने उसे अभिमानी एवं अत्याचारी बना दिया। वह अपने अलावा और किसी की नहीं सुनता था। इसी का परिणाम हुआ कि युद्ध में वह स्वयं तो मारा ही गया बल्कि उसके सगे-संबंधी, प्रजाजन भी बड़ी संख्या में मारे गए।
9. राम-रावण युद्ध दिन रात चला था। युद्ध के दौरान जब बीच में विराम आता था तब राम और अन्य बड़े अधिकारी हाथों में मशाल लेकर स्वयं अपने सैनिकों का हालचाल लेने जाते थे। घायलों का इलाज करवाते थे। केवल घायल लक्ष्मण का ही इलाज नहीं हुआ था बल्कि अन्य साधारण सैनिकों का भी वैसा ही इलाज हुआ था। जो सैनिक युद्ध में मारे जाते थे उनका शव सम्मान के साथ अलग रखा था क्योंकि युद्ध के दौरान उनके अंतिम संस्कार का समय नहीं मिल सका। लेकिन युद्ध के बाद जब देवताओं के सहयोग से और विशेष औषधियों के सहयोग से उन्हें जीवित करने का अवसर मिला तब सभी फिर से जीवित कर दिए गए। राम युद्ध की रणनीति के विषय में सभी से विचार-विमर्श करते, सभी की सुरक्षा का ख्याल रखते। युद्ध के बाद विभीषण से अपने से पहले सैनिकों और अपने अधिकारियों के भोजन, विश्राम आदि का प्रबंध करवाया था।
दूसरी तरफ रावण ने अपने अधिकारियों को आदेश दे रखा था कि उसके जो भी सैनिक युद्ध में मारे जाय उसके शव को रात में भी समुद्र में फेंक दिया जाय ताकि शत्रु पक्ष को यह पता नहीं चल सके कि उसके कितने सैनिक मारे गए थे।
जो व्यक्ति विमान के लिए भाई पर आक्रमण कर दे, जमीन के लिए बहन के पति को मार दे, सैकड़ों स्त्रियों का अपहरण करे और अपने ही भाई की बहू से दुष्कर्म करे वह किसी के लिए सम्मानीय नहीं हो सकता है भले ही वह कितना बड़ा भी विद्वान क्यों न हो। ऐसा राजा जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए समस्त देश को युद्ध में झोंक दे, प्रजा और परिवार को मर जाने दे, किसी का आदर्श नहीं हो सकता भले ही वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।
क्या रावण ने सच में राम के लिए पूजा करवाया था?
वाल्मीकि रामायण में ऐसी किसी घटना का उल्लेख नहीं है। लंका पहुँचने के बाद जब रणनीति बनाने के लिए मुख्य सेनापतियों के साथ राम सुवेल पर्वत पर चढ़े तब वहाँ से उन्होने दूर अपने महल के ऊपर बैठे रावण को पहली बार देखा था। राम ने समुद्र पार करने से पहले बालू का पार्थिव शिवलिंग बना कर उसकी पूजा की थी। पूजा के लिए जब मिट्टी या बालू का शिव लिंग बनाया जाता है तो उसके लिए आवाहन और विसर्जन किया जाता है। आज भी यही पद्धति है। प्राण प्रतिष्ठा तब की जाती है जब किसी मंदिर में मूर्ति स्थापित होती है। किसी भी देवता का आवाहन और विसर्जन दैनिक पूजा का भी भाग होता है। इसमें किसी पंडित की जरूरत नहीं होती। इसलिए राम को न तो किसी पंडित की जरूरत थी और न ही किसी को उन्होने बुलाया था।
दूसरा, सभी ब्राह्मण पंडित, पुरोहित, या आचार्य नहीं होते। आचार्य यज्ञ कराने वाले पंडित को या पढ़ाने वाले शिक्षक को कहते थे। रावण राजा था। उसके कभी भी पुरोहित का कार्य करने का कोई अन्य उल्लेख नहीं है। एक दंतकथा/लोककथा जरूर है रावण द्वारा भगवान शिव के एक पूजा में पुरोहित का कार्य करने की, पर रामायण में ऐसा कुछ भी नहीं है।

रावण के विषय में इतने अलग-अलग तथ्य क्यों हैं?
माना जाता है कि ऋषि वाल्मीकि ने राम पर पहली रचना ‘रामायण’ लिखी थी। यह विश्व का पहला महाकाव्य माना जाता है। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि देश के विभिन्न भागों ही नहीं दक्षिण-पूर्व एशिया तक में इस पर अनेक भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गई।
इतना ही नहीं अलग-अलग भागों में इस मूल कथा को लेकर अनेक ग्रंथ लिखे गए। इन ग्रन्थों में मूल कहानी भले ही एक ही हो, लेकिन विचार, घटनाएँ, व्याख्या आदि बहुत अधिक बदल गए। अलग-अलग दृष्टिकोण से लिखे होने के कारण आरोप-प्रत्यारोप-स्पष्टीकरण भी हुआ। यह क्रम आधुनिक काल तक चल रहा है।
मध्यकाल में ऐसे जो ग्रंथ लिखे गए उनमें उत्तर भारत में तुलसीदास का ‘रामचरित मानस’ बंगाल में कृतिवास का ‘रामायण’, दक्षिण भारत में रंगनाथ का ‘रंग रामायण’ आदि सबसे अधिक लोकप्रिय हुए। वहाँ के लोगों ने इन्हे ही ‘रामायण’ मान लिया। आज भी उत्तर भारत में अधिकांश लोग ‘रामचरित मानस’ को रामायण ही कह देते हैं। रामायण के इतने अधिक संस्कारण के कारण तुलसीदास स्वयं कहते हैं ‘रामायण शत कोटी अपारा।’
उदाहरण के लिए, रामचरित मानस में तुलसीदास सीता वनवास या लव-कुश प्रकरण को बिल्कुल ही नहीं देते हैं, सीता वनवास के लिए राम पर जो आक्षेप लगते रहे थे संभवतः उस से राम का बचाव करने के लिए, और इस बात की व्याख्या करने के लिए कि रावण एक पतिव्रता नारी को कैसे छू सका था, वे एक प्रसंग जोड़ देते हैं कि अपहरण से पहले सीता को अग्नि में रख कर उसकी प्रतिछाया को आश्रम में रखा गया था। यानि रावण जिस सीता को ले गया था, वह असली नहीं बल्कि सीता की प्रतिछाया थी। असली को अग्नि से निकालने के लिए ही राम ने उनका अग्नि परीक्षा किया था। उनके अनुसार आदर्श नायक को शांत, सौम्य होना चाहिए इसलिए परशुराम-राम संवाद के बदले वे परशुराम-लक्ष्मण संवाद करवाते हैं।
इसी तरह 15वीं शताब्दी के बाद लिखे गए रामायण के वर्जन में ‘लक्ष्मण रेखा’ की बात की जाने लगी। महाराष्ट्र की तरफ प्रचलित रामायण में लव-कुश द्वारा राम के यज्ञ का घोड़ा रोक लेने और पिता-पुत्र में युद्ध का वर्णन है। लक्ष्मण द्वारा रावण से शिक्षा लेना, रावण द्वारा राम की पूजा करवाना इत्यादि ऐसे ही प्रसंग हैं, जबकि ऐसी कोई भी बात वाल्मीकि के रामायण में नहीं है।
किस रामायण को सच माने?
जब सारे देश में रामायण के इतने अधिक रूप प्रचलित है तब एक सवाल जरूर है कि इनमें से किसे सही माने? सबसे पहले देखते हैं इनके लिखने वाले स्वयं अपने लेखन के विषय में क्या कहते हैं?
वाल्मीकि
रामायण मूल रूप से ऋषि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया है। वे बार-बार शपथ लेकर कर कहते हैं कि इस ग्रंथ में जो कुछ लिखा गया है वह बिल्कुल सच है। रामायण के अनुसार स्वयं राम ने भरी सभा में इसे सुना था। तथ्य में अगर कोई गलती होती तो वह विरोध करते। उनके साथ व्याकरण, संस्कृत भाषा, गायन विद्या, आदि के भी अनेक विद्वान बैठे थे सभा में, जो रामायण का गायन सुन कर उसकी समीक्षा करते। सबने इस महाकाव्य की बहुत सराहना की।
ऋषि वाल्मीकि राम के समकालीन थे। उनका राम के पूर्वजों के समय से ही इस राजवंश से अच्छे संबंध रहे थे। उनका आश्रम अवध राज्य की सीमा पर गंगा नदी के किनारे के जंगल में था। इसलिए कहीं आते-जाते रघुवंश के राजा अक्सर उनके आश्रम में रुक जाते थे। वाल्मीकि अत्यंत सम्मानित ऋषि थे। एक बार नारद मुनि उनसे मिलने आएँ। बातचीत के क्रम में वाल्मीकि ने उनसे किसी ऐसे व्यक्ति के विषय में पूछा जिनमें उनके द्वारा गिनाए गए सब गुण हो। नारद जी ने ऐसे व्यक्ति के रूप में राजा राम का नाम लिया। इस समय तक राम वनवास से लौट कर आ गए थे और उनका राज्याभिषेक हो चुका था। राम के विषय में वाल्मीकि ने सुन तो रखा था लेकिन नारद जी के मुँह से उनके विषय में विस्तृत वर्णन सुन कर वे राम के चरित्र से बहुत प्रभावित हुए।
नारद जी के जाने के बाद भी राम के विषय में ही वे सोच रहे थे। ऐसे में ही वे अपने एक शिष्य के साथ जंगल में घूम रहे थे। यहीं उन्होने देखा कि क्रौंच पंछी के जोड़े में से एक को एक ब्याध ने मार डाला। मादा क्रौंच के करुण विलाप से वाल्मीक को उस ब्याध पर बहुत गुस्सा आया। उन्होने उसे शाप दे दिया। पर, जल्दी ही उन्हें लगा कि उन्हें शाप नहीं देना चाहिए था। ब्याध तो अपने जीविकोपार्जन के लिए यह कार्य कर रहा था। फिर उनका ध्यान अपने शब्दों पर गया। उन्होने शाप उसे एक श्लोक के रूप में दिया था। गुस्से में अगर कोई किसी को डांटता है या कुछ कहता है तब वह समान्यतः कविता या गीत के रूप में ऐसा नहीं करता पर वाल्मीकि के मुँह से बिन सोचे-समझे ही श्लोक निकल गया था। गर्भवती मादा क्रौंच के दुख से उन्हें गर्भवती सीता के दुख की याद आ गई। वे इस श्लोक के विषय में सोचते हुए आश्रम वापस आ गए।
आश्रम में उनसे मिलने ब्रह्मा जी आए। ब्रह्मा जी ने सारी बात जानने के बाद कहा कि वे राम के चरित पर एक ग्रंथ लिखें। उन्होने यह भी सुझाव दिया कि वे यह ग्रंथ कविता (श्लोक) के रूप में लिखें और उसी छंद में लिखे जिस श्लोक से उन्होने ब्याध को शाप दिया था। क्योंकि यह छंद गाने में बहुत अच्छा लगता।
पर, वाल्मीकि के सामने सबसे पड़ा सवाल यह था कि वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। राम से संबन्धित घटना उन्होने आँखों से नहीं देखा था। वह उनसे बहुत दूर अयोध्या, पंचवटी, लंका आदि स्थानों में हुई थीं। अगर सुनी-सुनाई बातों पर लिखते तो हो सकता था कुछ झूठ लिखा जाता।
इसके समाधान के लिए ब्रह्मा जी ने कहा कि आप समाधि में सभी घटनाओं और संवादों को प्रत्यक्ष रूप से देख सकेंगे। इस तरह सही-सही लिख पाएंगे।
उन्होने यह भी कहा कि इसमें लिखी गई कोई बात गलत नहीं होगी और वे जो भी लिखेंगे वह सच हो जाएगी। प्रसंगवश, इसी पंक्ति के कारण यह विवाद है कि उत्तर कांड जो कि उस समय तक घटित नहीं हुआ था पहले ही भविष्यवाणी के रुप में लिख लिया गया था या यह बाद में लिखा गया है।
इस पूरे प्रसंग का विवरण देकर वाल्मीकि बार-बार यह दावा करते हैं कि रामायण में लिखी गई सभी बाते सच हैं।
तुलसीदास
वाल्मीकि जी के बाद लिखने वाले लेखक सच्चाई का ऐसा कोई दावा नहीं करते। उदाहरण के लिए तुलसीदास जी स्वयं कहते हैं कि मैंने यह कथा अपने गुरु से सुना था और अपने मन में जिस तरह मैंने रखा हुआ था उसी तरह सुना रहा हूँ (राम चरित मानस रची राखा) और इसीलिए मैंने इसका नाम ‘रामचरित मानस’ रखा है।
वर्तमान में भी हम देखते हैं कि अनेक लोग किसी पौराणिक पात्रों और घटनाओं को लेकर किसी ग्रंथ की रचना करते हैं। पात्र भले ही किसी पुराण के होते हैं पर विचार लेखक के अपने होते हैं।
रामधारी सिंह दिनकर ने ऐतिहासिक एवं पौराणिक पात्रों को लेकर अनेक रचना की है; जैसे, उर्वशी, यशोधरा, उर्मिला, कर्ण, आदि। पर इनमें प्रकट विचार लेखक के अपने हैं। जब उनकी यशोधरा कहती है कि “सखी वे मुझ से कह कर जाते, कह कर जाते तो क्या मुझे अपनी भव बाधा ही पाते।” यशोधरा को दुख इस बात का है कि उनके पति (भगवान बुद्ध) उन्हें बिना कहे चले गए, उन पर इतना विश्वास नहीं किया कि उन्हें कह कर जाते।” तो यह विचार वास्तव में यशोधरा के नहीं बल्कि कवि दिनकर के हैं। एक पात्र के माध्यम से अपने भावों को प्रकट करने का यह साहित्यिक तरीका है।
संभवतः ऐसी ही साहित्यिक रचनाएँ जब अधिक लोकप्रिय हो गई तब लोग इसे ही सच मानने लगे। वाल्मीकि रामायण भी अब अपने मूल रूप में नहीं है और प्रतिलिपिकारों ने इसमें भी कुछ अंश बाद में डाले हैं। लेकिन फिर भी राम के चरित को समझने के लिए यही सबसे विश्वसनीय पुस्तक हैं। बाकी सब साहित्य हैं।
वाल्मीक रामायण के आधार पर ही रावण को बुराई का प्रतीक माना गया है सदियों से। हमारा आदर्श, राज्य के लिए व्यक्तिगत सुखों को छोड़ने वाला राम हो सकते हैं, व्यक्तिगत सुखों के लिए राज्य का बलिदान करने वाला रावण नहीं। हमारा आदर्श हनुमान की शक्ति और बुद्धि हो सकती है, रावण का अभिमान नहीं।
रावण का पुतला जलाकर पीढ़ियों को इस बात की सीख दी जाती है कि आप भले ही कितने भी ऊँचे कुल में जन्म ले लो, कितने ही शिक्षित और धनवान हो जाओ, लेकिन अगर आपमें चरित्र नहीं है, स्वार्थ और अभिमान है तो सम्मान के पात्र नहीं हो सकते। व्यक्तिगत गुण आपके हर गलत को सही नहीं कर देता, यही समझने का अवसर है रावण।
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