तैतीस कोटि देवी-देवताओं का रहस्य

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हम भारतीय लोगों ने कभी-न-कभी तैतीस कोटि देवी-देवाओं के विषय में अवश्य सुना होगा। कभी मज़ाक में, कभी व्यंग्य में, तो कभी अज्ञानतावश, इन्हें 33 करोड़ भी बोल दिया जाता है। इस तरह के संदेह का कारण यह है कि संस्कृत भाषा के कोटि शब्द का हिन्दी में दो अर्थ हैं, करोड़ और प्रकार। इन 33 कोटि यानि 33 प्रकार के देवताओं के विषय में बात करने से पहले ये जानना जरूरी है कि देवी-देवता कौन होते हैं? उनकी विशेषताएँ क्या होती हैं?

      संस्कृत में “देवता” शब्द संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण तीनों रूपों में प्रयुक्त हुआ है। “देवता” शब्द की व्युत्पत्ति “द्योः” शब्द से हुई है। जिसका अर्थ होता है ‘प्रकाशवान’। अर्थात कोई ऐसा व्यक्ति जो अपने सद्गुणों से प्रकाशित हो वह देवता कहलाता है। इसी अर्थ में हम आज भी कहते हैं कि अमुक व्यक्ति देवता है। धीरे-धीरे यह शब्द एक संज्ञा बन गया जिसका अर्थ हुआ ऐसा “व्यक्ति” जो अपने गुणों के कारण स्वर्ग में रहने का अधिकारी हो गया और अमर हो गया।

      देवताओं की जो पहचान पौराणिक कथाओं में बताई गई है उसके अनुसार देवता के शरीर में एक विशेष कांति या प्रकाश होता है, वे अगर धरती पर आते भी हैं तो धरती को कभी स्पर्श नहीं करते अर्थात उनके पैर धरती से थोड़े ऊपर होते हैं, उनके कपड़े कभी मैले नहीं होते थे, इत्यादि। साधारण व्यक्ति के अपने पुण्य कर्मों से देव लोक और देवत्व पाने की अनेक कथाएँ हमारे पुराणों में है।

      अर्थात एक संज्ञा के रूप में यह स्वर्ग में रहने वाले एक विशेष अमर प्राणी का द्योतक था। लेकिन एक विशेषण के रूप में इसका प्रयोग एक विशेष प्रकार के गुणों के लिए हुआ है। यही कारण है कि वेदों में यज्ञ कर्म में भाग लेने वाले मनुष्यों, प्रत्येक वेद, और उनके प्रत्येक मंत्रों के लिए देवता की परिकल्पना की गई है। यहाँ तक कि यज्ञों में प्रयोग होने वाले वस्तुओं जैसे सील, लोढ़े, मूसल, ओखली, नदी, पहाड़ इत्यादि में रहने वाले देवता यानि उनके देवत्व के गुणों के विषय में बताया गया है। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है गायत्री। गायत्री ऋग्वेद के एक छंद की देवी का नाम था। छंद का भी यही नाम था। गायत्री मंत्र इसी विशेष छंद में श्लोकबद्ध किया गया है। यह मंत्र इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि बाद में इसी देवी को “वेदमाता गायत्री” के रूप में लोकप्रियता मिली।

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      देवता भगवान या ईश्वर से अलग है। भगवान तो वह सत्ता है जिसने देवताओं की भी रचना की है। भगवान अनादी, अनंत, निर्गुण एवं निराकार हैं। चूँकि उनके इस रूप का स्मरण करना ऐसे व्यक्तियों के लिए तो संभव है जिनकी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति उच्च हो, लेकिन साधारण लोग इसे नहीं समझ सकते। इसीलिए वे अपने अंश से कभी-कभी मनुष्य के रूप में अवतार ले लेते हैं। इसके विपरीत अधिकांश देवता पहले मनुष्य थे, जिन्होंने बाद में देवत्व प्राप्त किया था, या वे देवता की संतति थे।

      मुख्य देवताओं के अलावा प्रत्येक गाँव के, प्रत्येक कुल के, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति के एक विशेष (इष्ट) देवता होते हैं। आज भी लगभग सभी गाँवों के बाहर एक स्थान ग्राम देवता का होता है। ये स्थान साधारणतः गाँव की सीमा पर किसी पेड़ के नीचे या टीले के रूप में होते हैं। देश के प्रत्येक क्षेत्र में एक या अधिक लोक देवता जरूर होते हैं। इस संबंध में राजस्थान के लोकदेवताओं का अध्ययन बड़ा रोचक है।

      राजस्थान में अनेक लोकदेवता हैं। जन साधारण उन्हें बहुत आदर देते हैं। उनके नाम पर मेले लगते हैं और कई तीर्थ स्थल हैं। रामदेव जी, गोगा जी, गुरु जम्भेश्वर, जीणमाता, करणी माता, तेजा जी इत्यादि वहाँ के प्रमुख लोकदेवता हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इन सभी ने गायों, स्त्रियों, जलाशयों, अपने लोगों या अपने क्षेत्र की रक्षा करते हुए अपना जीवन बलिदान किया था। उनके कार्यों के कारण लोगों ने मृत्यु के बाद उनकी स्मृति को सँजो कर रखा और उनकी पूजा करने लगे। उनके गुणों के कारण यह माना गया कि उन्होने मृत्यु के बाद देवत्व पाया और इसलिए वे मृत्यु के बाद भी उनकी रक्षा करते रहेंगे।

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      उपकार का प्रतिउपकार एवं कृतज्ञता ज्ञापन भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। यह उपकार भले ही किसी व्यक्ति द्वारा किया जाय या प्रकृति द्वारा। अग्नि, वायु, सूर्य, पृथ्वी, समुद्र इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को भी देवता तथा पूजनीय माना गया है। यहाँ तक कि इनके अलग-अलग गुणों के लिए अलग-अलग देवत्व के नाम दिए गए। उदाहरण के लिए सूर्य एक देवता थे। सुबह में उदय के समय उनके सौम्य रूप में उषा, शाम को अस्ताचलगामी सूर्य में संध्या और दिन के प्रखर सूर्य में सवितु नामक देवियों की परिकल्पना की गई थी।

      प्राकृतिक शक्तियों और अच्छे व्यक्तियों की पूजा देवता के रूप में करना उनके उपकारों एवं महत्त्व को याद रखने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का प्राचीन भारतियों का अपना तरीका था। सामान्यतः किसी काम के आरंभ में संबन्धित देवता के पूजा की परंपरा थी।

      संक्षेप में, व्यक्ति या प्रकृति में जो भी अच्छा है, जिस से हमे प्रसन्नता मिलती है, या कोई लाभ मिलता है, वह सभी देवता माने गए।      

      इस दृष्टि से देखने पर देवी-देवताओं की संख्या तैतीस करोड़ से बहुत अधिक होगी। वास्तव में ऐसे देवी-देवताओं की गिनती करना संभव नहीं है। इसीलिए वेदों में देवताओं की संख्या नहीं बल्कि उनके प्रकार (कोटि) बताएं गए हैं।

      ऋग्वेद के अनुसार देवताओं की तीन श्रेणियाँ थीं। ये थे- पृथ्वी पर रहने वाले, आकाश में रहने वाले और अन्तरिक्ष में रहने वाले देवता। इन तीनों में 11-11 प्रकार के देवता थे, जिनमें एक देवता सबसे मुख्य था। तदनुसार पृथ्वी के देवताओं में अग्नि, आकाश के देवताओं में वायु तथा अन्तरिक्ष के देवताओं में सूर्य (कहीं-कहीं इन्द्र को यह स्थान दिया गया है) सबसे प्रमुख था।

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      विद्वानों ने इन 33 प्रकार (कोटि) के देवताओं की और भी अनेक प्रकार से व्याख्या किया है। एक मत के अनुसार 33 कोटि देवी-देवताओं में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। कुछ शास्त्रों में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमारों को 33 कोटि देवताओं में शामिल किया गया है। इनके नाम इस प्रकार थे:          

आठ वसु: 1. आप 2. ध्रुव 3. सोम 4. धर 5. अनिल 6. अनल 7. प्रत्यूष, और 8. प्रभाष

ग्यारह रुद्र: 1. मनु 2. मन्यु 3. शिव 4. महत 5. ऋतुध्वज 6. महिनस 7. उम्रतेरस 8. काल 9. वामदेव 10. भव 11. धृत-ध्वज (कुछ पुराणों में 11 रुद्रों के नाम इस प्रकार मिलते हैं: शंभू, (2) पिनाकी, (3) गिरीश, (4) स्थाणु, (5) भर्ग, (6) भाव, (7) सदाशिव, (8) शिव, (9) हर, (10) शर्व, और (11) कपाली।)

बारह आदित्य: 1. अंशुमान 2. अर्यमन 3. इंद्र 4. त्वष्टा 5. धातु 6. पर्जन्य 7. पूषा 8. भग 9. मित्र 10. वरुण 11. वैवस्वत (विवस्वान), और 12. विष्णु

दो अश्विनी कुमार: (1) नासात्य, और (2) द्स्त्र। अश्विनी कुमार औषधियों के देवता हैं जो जुड़वा भाई हैं। इसलिए इन दोनों को सामान्यतः एक ही नाम “अश्विनी कुमार” से बुलाते हैं। लेकिन दोनों के ये दो नाम हैं।

      वास्तव में ये सभी देवता नहीं बल्कि देवत्व के किसी-न-किसी गुण के मूर्त रूप थे। इस दृष्टि से हम सब में देवता बनने की संभावना छिपी है।

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