क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
सुप्रीम कोर्ट के सात जजेस बेंच ने छह-एक के बहुमत से फैसला सुनाया है कि:
- अनुसूचित जाति/जनजाति (एससी/एसटी) को मिलने वाले आरक्षण के कोटा में राज्य सरकार उप-वर्गीकरण (sub-category) कर सकती है।
- इन वर्गों में जो क्रीमी लेयर हैं, उन्हें आरक्षण से वंचित किया जा सकता है। अभी तक यह केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में ही लागू था।
- राज्य सरकार इन समुदायों में क्रीमी लेयर होने के मानदंड निश्चित करें। यह मापदंड ओबीसी के मापदण्डों से अलग होना चाहिए।
- वर्गीकरण किया जा सकता है लेकिन एससी के भीतर किसी एक जाति को 100 प्रतिशत कोटा नहीं दिया जा सकता है।
- साथ ही यह भी कहा कि एससी में शामिल किसी जाति का कोटा तय करने से पहले उसके हिस्सेदारी की पुख्ता आंकड़ा एकत्र किया जाना चाहिए।
- जस्टिस गवई और जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा कि एससी/एसटी में आरक्षण एक पीढ़ी तक ही सीमित होनी चाहिए। अगर किसी की एक पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ लेकर सामाजिक और आर्थिक उन्नति कर ली है तो अब उसे और लाभ नहीं लेना चाहिए बल्कि अपने समुदाय के अन्य वंचित लोगों को यह लाभ लेने देना चाहिए।
- कोटे में कोटा संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के विरुद्ध नहीं है। 2004 के इवी चेन्नमा बनाम आंध्र प्रदेश (EV Chinnaiah V. State of Andhra Pradesh) केस में इसे समानता के विरुद्ध माना गया था। साथ ही यह भी कहा गया था कि किसी जाति को एससी में शामिल करना अनुच्छेद 341 के अनुसार राष्ट्रपति का अधिकार है। लेकिन अब कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने को प्राप्त अधिकार का उपयोग करते हुए यह अधिकार राज्य सरकार को दे दिया है।
- उप वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341 (2) का उल्लंघन नहीं करता अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं जो राज्य को किसी जाति को उप वर्गीकृत करने से रोकता है।
निर्णय का व्यावहारिक पक्ष
- अभी देश में एससी/एसटी को 15 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। इस फ़ेलसे के बाद इस 15 प्रतिशत में एससी/एसटी के अंदर आने वाली किस जाति को कितना मिलेगा, राज्य सरकार यह भी निश्चित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए किसी राज्य के अंदर 39 जातियाँ ऐसी हैं जिन्हें एससी वर्ग में रखा गया है। इन 39 में से किसको कितना आरक्षण मिलेगा यह राज्य सरकार तय कर सकती है। यानि एक तरह से आरक्षण के अंदर आरक्षण जैसी स्थिति हो जाएगी।
- दूसरा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी तक आरक्षण केंद्र सरकार का विषय था। राज्य सरकार केंद्र की नीति को लागू करती थी। यानि पूरे देश में एकरूपता थी। इस निर्णय द्वारा यह ज़िम्मेदारी राज्य सरकार को दे दिया गया है। व्यावहारिक रूप से इसका परिणाम यह हो सकता है कोई ऐसी जाति एक राज्य में अधिक सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित हो, एवं उसका प्रतिनिधित्व अधिक हो लेकिन किसी दूसरे राज्य में उसका प्रतिनिधित्व कम हो। ऐसी स्थिति में दोनों राज्यों में उस जाति के आरक्षण प्रतिशत में अंतर हो सकता है।
- अगर किसी राज्य में 10 जातियाँ ऐसी हैं जिन्हें एससी के अंतर्गत रखा गया है। इनके लिए आरक्षण 15 प्रतिशत है। अगर राज्य सरकार को लगता है कि इन 10 में से छह जातियों को आरक्षण की जरूरत ज्यादा है तो इन छह जातियों को वह कुल 15 में से 10 प्रतिशत आरक्षण दे सकती है। पर राज्य सरकार के इस निर्णय को अनुच्छेद 13 के तहत सुप्रीम कोर्ट न्यायिक समीक्षा कर सकता है।
क्या है क्रीमी लेयर?
क्रीमी लेयर का अर्थ होता है किसी समुदाय को वह वर्ग जो अपने समुदाय के अन्य लोगों की तुलना में सामाजिक और आर्थिक रूप से अच्छी स्थिति में हो। यानि क्रीमी लेयर अपने समुदाय के सबसे सम्पन्न और अवसरयुक्त लोग होते हैं। वर्तमान प्रावधानों के तहत ओबीसी समुदाय के जो लोग क्रीमी लेयर हैं उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है। सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी में क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर करने वाला निर्णय इन्दिरा साहनी मामले में दिया था। अभी ओबीसी में क्रीमी लेयर के लिए न्यूनतम आय सीमा 15 लाख सालाना है।
क्रीमी लेयर का सिद्धान्त यह है कि अगर एक समुदाय का व्यक्ति आरक्षण का लाभ लेकर अपने समुदाय के अन्य लोगों से अधिक अच्छी स्थिति में आ चुका है और उसे फिर से आरक्षण का लाभ दिया जाय तो वह तो और उन्नति करेगा लेकिन उसी समुदाय के अन्य लोग आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाएंगे। इससे एक ही समुदाय के सदस्यों में आपस में भी असमानता बढ़ेगी। आरक्षण का लाभ अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए यह जरूरी है कि उन लोगों को, जो इसका लाभ लेकर उन्नति कर चुके हैं, इससे और अधिक लाभ लेने से रोक कर अन्य लोगों लोगों के लाभ लेने का अवसर दिया जाय।
क्यों हो रही है आलोचना?
- एससी/एसटी समुदाय के कुछ सदस्य भी आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाएंगे।
- जातिगत राजनीति को बढ़ावा मिलेगा। देश में करीब 17 राज्य ऐसे हैं जहां जाति राजनीति और वोट पर महत्वपूर्ण प्रभाव रखते हैं।
- सात जजों के बेंच में जिस जज ने इस निर्णय के विरोध में मत दिया जस्टिस श्रीमती बेला एम त्रिवेदी ने, उनका कहना था कि किस राज्य से किस जाति को एससी में शामिल किया जाय यह केंद्र सरकार और राष्ट्रपति का अधिकार है। कोर्ट को अनुच्छेद 142 का उपयोग कर इस अधिकार को उनसे लेकर राज्यों को देने का अधिकार नहीं है।
- आलोचना का एक आधार यह भी है कि इतना महत्वपूर्ण फैसला केवल अँग्रेजी भाषा में है। निर्णय सुरक्षित करने के पाँच महिने बाद निर्णय आया है। इतने समय में अनुवाद की वयवस्था हो सकती थी।
- भारत में जातिगत जनगणना पर भी अभी एकमत नहीं हैं। सामान्य जन गणना जो कि 2021 में हो जानी चाहिए थी, अब तक नहीं हो पाया है। किसी पुख्ता आंकड़े के आभाव में ऐसे नीति लागू करना कठिन होगा।
- कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ ऐतिहासिक उदाहरण दिया है जिससे दलित वर्ग संबंधी विवाद बढ़ सकता है। कोर्ट ने देश में शोषित या दलित वर्ग (depressed class) और उनके निर्धारण के लिए मानदंडो पर भी विचार किया।
ऐतिहासिक रूप से 1917 में सर हेनरी शार्प की बनाई डिप्रेस्ड क्लास (शोषित वर्ग) की सूची के समय क्या मानदंड अपनाए गए इसके बारे में बताया कि दलित समाज के भीतर की सभी जातियों में एक समानता नहीं है और उनके भीतर भी आपस में भेदभाव होता है। सर हेनरी शार्प ने अपनी सूची में शोषित वर्ग के अलावा क्रिमिनल ट्राइब्स और पहाड़ों पर रहने वाली जनजातियों को शामिल किया। शार्प ने कहा कहा कि ये जातियां सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी है। लेकिन जाति के दंश से बची नहीं हैं। इनमें कुछ मुस्लिम जातियां भी हैं यानी इन लोगों ने भी जातिगत अपमान झेला है, छुआछूत का सामना किया है। चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ अपने फैसले में 1916 में इंडियन लेजिस्लेटिव असेंबली की एक चर्चा का हवाला दिया जिसमें इस बात पर चर्चा हो रही थी कि शोषित वर्ग में किसे शामिल किया जाए। उस चर्चे के दौरान सुझाव दिया गया कि इसमें घुमंतु कबीलों और अपराधी घोषित कर दिए गए कबीलों को शामिल करना चाहिए। इन उदाहरणों से लगता है कि कोर्ट यह भी स्वीकार कर रहा है कि कुछ मुस्लिम जातियों ने भी छुआछूत या जाति के दंश का सामना किया। ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि फैसले में इस उदाहरण की व्याख्या आने वाले समय में मुस्लिम आरक्षण के संदर्भ में भी की जाएगी।
इंडियन फ्रेंचाइजी कमेटी मानती है कि एक ऐसा वर्ग है जिसके छू देने से कोई चीज अपवित्र मान ली जाती है वह शोषित वर्ग है, डिप्रेस्ड क्लास है। इसमें आदिवासी और उन हिंदुओं को शामिल नहीं किया जा सकता जो अछूत नहीं माने जा सकते। इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि छुआछूत की डिग्री में अंतर हो सकता है किसी के साथ ज्यादा तो किसी के साथ कम हो सकती है। जैसे, कुछ जातियों को मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं होगी मगर कुछ को मंदिर में जाने की इजाजत होगी। लेकिन मंदिर के गर्भगृह में नहीं। यहां जजमेंट में एक उदाहरण दिया गया है कि मद्रास में किसी अछूत के संपर्क में आने पर तुरंत ही पवित्र होने की व्यवस्था थी। ये अंग्रेजों के समय की बात है। मगर असम में ऐसा नहीं था। यहां पर चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ असम के सेंसस अधीक्षक की रिपोर्ट का हवाला देते हैं जिसमें बताया जाता है कि कुछ अछूत जातियां जो समृद्ध हैं और शैक्षणिक रूप से आगे हैं वह दूसरी जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार करती हैं। जैसे असम में एक पाटनी जाति के नाविक ने मोची के लिए पतवार चलाने से इंकार कर दिया और कहा कि मोती खुद ही पतवार चलाएगा अगर उसे नदी पार करनी है तो।
इस तरह कोर्ट अंग्रेजों के समय का उदाहरण देते हुए कहती है कि अनुसूचित जाति के भीतर भी छुआछूत का व्यवहार रहा है। उनके भीतर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन एक समान नहीं था। इसलिए ठोस डाटा के आधार पर इनकी पहचान और वर्गीकरण का काम किया जाना चाहिए ताकि उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके। मगर यह काम होगा कैसे? जाति की जनगणना पर तो अभी तक कोई निर्णय सरकार ने लिया नहीं है।
क्या है असमंजस?
- अभी तक क्रीमी लेयर का प्रावधान केवल ‘अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी)’ के आरक्षण में था। अब पहली बार होगा कि अनुसूचित जाति और जनजाति के मामले में क्रीमी लेयर लागू किया जाएगा। इसे लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या कोर्ट के सामने क्रीमी लेयर का प्रश्न था? क्या सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति के भीतर क्रीमी लेयर की बात को स्वीकार करेगी? या फिर सरकार कानून बनाकर कोर्ट के फैसले को पलट देगी?
- यह सिद्धान्त केवल सरकारी नौकरियों में लागू होगा या कॉलेज एडमिशन और संसद सदस्यता के लिए भी लागू होगा, यह असमंजस बना हुआ है।
- यह फैसला वर्गीकरण के साथ-साथ यह भी स्वीकार करता है कि अनुसूचित जाति के भीतर भी एक जाति दूसरी जाति के साथ भेदभाव और छुआछूत का बर्ताव करती है। इसलिए इन्हें समान रूप से देखना ठीक नहीं। लेकिन क्या इसी आधार पर अनुसूचित जाति और जनजाति के भीतर वर्गीकरण किया जा सकता है?
समर्थन में क्या तर्क दिए जा रहे हैं?
1. जो एक बार आरक्षण का का लाभ ले कर क्रीमी लेयर में आ चुके हैं, अगर उन्हें अभी भी आरक्षण का लाभ दिया जायगा तो वर्ग के अंदर ही असमानता उत्पन्न होगी और जिन्हें अभी तक लाभ नहीं मिल सका है उन्हें लाभ से वंचित रहना पड़ेगा। क्रीमी लेयर को लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ देना आरक्षण के मूल सिद्धान्त और उद्देश्य के विपरीत है। इसलिए क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाना तर्क संगत है।
2. ओबीसी की तरह एससी/एसटी भी कोई समानता वाला वर्ग (homogenous) वर्ग नहीं है। उनमें भी आपसी भेदभाव है और कोई वर्ग दूसरे से अधिक अच्छी स्थिति में है। इसलिए आरक्षण का अधिकतम लाभ के लिए उन सब को उनके स्थिति के अनुसार आरक्षण मिलना चाहिए।
3. एक ही जाति सभी राज्यों में एक स्थिति में नहीं है। इसलिए राज्यों को एससी/एसटी के अंदर वर्ग बनाने का अधिकार देना तर्कसंगत है। केंद्र से अधिक राज्य स्थानीय स्थिति को समझ सकेंगे।
इस निर्णय द्वारा कोर्ट ने अपने किन निर्णयों का अनुमोदन किया है या उसे बदल डाला है?
- इस केस में जिन तर्कों को दुहराया गया है पहले एम नागराज वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया और जनेल सिंह के केस में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है।
- 20 साल पहले 2004 में पाँच जजेज़ द्वारा ईवी चिन्नया बनाम आंध्र प्रदेश केस में दिए गए निर्णय को पलट दिया है। 2004 में पांच जजों की बेंच ने फैसला दिया कि अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण के भीतर कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता है, कोई कोटा नहीं हो सकता। उस केस में कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जाति और जनजाति समरूप समूह (होमोजीनस) है यानी एक वर्ग है। अनुसूचित जाति में भी जितनी भी जातियां हैं सभी ने सामाजिक भेदभाव हिंसा और अपमान बहिष्कार एक समान झेला है इन्हें अलग-अलग श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता। अनुच्छेद 341 में इन्हें समरूप समूह की तरह परिभाषित किया गया है। वर्तमान निर्णय द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या को बदला और कहा सबको एक समान समूह के तहत नहीं माना जा सकता और वर्गीकरण किया जा सकता है।
- इन्दिरा साहनी केस में कोर्ट ने ओबीसी में क्रीमी लेयर का सिद्धान्त लागू किया था। इस बार यह सिद्धान्त एससी/एसटी तक विस्तृत कर दिया गया।
किस केस में और कब कोर्ट ने यह फैसला दिया है?
स्टेट ऑफ पंजाब वर्सेस देवेंद्र सिंह एंड अदर्स Civil Appeal No(s). 2317/2011
निर्णय- 1 अगस्त 2024
केस के तथ्य- 1975 में पंजाब ने अपने राज्य में आरक्षित सीटों को दो श्रेणियों में बाँट दिया। पहला, अनुसूचित जाति में आने वाले वाल्मीकि समाज और महज़बी सिख, दूसरा, अन्य अनुसूचित जातियाँ। यानि कुल 15 प्रतिशत का आधा कोटा केवल दो वर्गों के लिए रखी गई और बाकी आधे में अन्य सभी जातियों को। अगले 30 वर्षों तक पंजाब में यह व्यवस्था चलता रहा।
2004 में सुप्रीम कोर्ट के पाँच जज बेंच नेईवी चिन्नया बनाम आंध्र प्रदेश केस में कहा कि ही आरक्षित वर्ग के अंदर उप वर्गीकरण गैर कानूनी है और समानता के सिद्धान्त के खिलाफ है।
संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सारे देश पर लागू होता है। इसलिए 2006 में पंजाब सरकार फिर से एक नया कानून लायी और इसके अंदर फिर से वाल्मीकि और मज़हबी सिखों को अलग वर्ग बना कर आरक्षण दिया गया।
इस कानून को हाइ कोर्ट में चुनौती दी गई। 2010 में हाइ कोर्ट ने पंजाब सरकार के उप वर्गीकरण वाली नीति को सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप रद्द कर दिया।
हाइ कोर्ट के इस निर्णय के विरुद्ध पंजाब सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची। पंजाब सरकार का तर्क था कि 1992 के भारत संघ बनाम इन्दिरा साहनी के केस में मंडल आयोग में थोड़ा सुधार कर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया, साथ ही कुल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी गई। इन्दिरा साहनी केस में कोर्ट ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है या नहीं इसके लिए 11 मानदंड तय किया था। अर्थात क्रीमी लेयर का सिद्धान्त इसी केस में दिया था। पंजाब सरकार ने इन्दिरा साहनी केस के निर्णय को चुनौती दी।
चूंकि इन्दिरा साहनी केस पाँच जज बेंच ने सुना था इसलिए कोर्ट ने इस मामले में फैसला देने के लिए 2010 में सात जज का बेंच बनाया। इसी बेंच ने 2020 में यह निर्णय किया कि 2004 में इवी चेन्नईया मामले पर पुनर्विचार होगा। जनवरी 2024 में कोर्ट ने 2020 के निर्णय के अनुसार सात जजों का बेंच बनाया।
जनवरी, 2024 में सात जज बेंच ने तीन दिनों तक इस पर सुनवाई करने के बाद केस निर्णय के लिए सुरक्षित रख दिया था। फैसला इस वर्ष 2 फरवरी को ही सुरक्षित रखा था लेकिन फैसला 1 अगस्त 2024 को दिया है।
अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट बेंच में कौन से जज थे? किस जज ने फैसले से असहमति जताया?
इस बेंच में ये सात जज थे- चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस श्रीमती बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस मनोज मिश्रा। जस्टिस बीआर गवाई, जो भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश बनाने वाले हैं, ने इसका सबसे मजबूती से समर्थन किया।
जस्टिस श्रीमती बेला एम त्रिवेदी ने फैसले के विरुद्ध मत दिया। उनका मानना था कि राष्ट्रपति को जो अधिकार संविधान द्वारा मिला है वह राज्य को देना सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। अनुच्छेद 142 यह अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं देता है।
इस निर्णय पर वैधानिक प्रश्न
क्या कोर्ट को नीतिगत मुद्दे पर अपनी तरह से निर्णय देने का अधिकार है? क्या यह कानून बनाने के विधायिका के अधिकार का उल्ल्ङ्घन नहीं है? इस सीमा तक न्यायायिक सक्रियता क्या कार्यकारिणी और विधायिका के अधिकार को कम नहीं करती?
संविधान का अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी जाति को किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल कर सकता है। हालांकि इसके लिए वह उस राज्य के राज्यपाल से सलाह ले सकता है। इस निर्णय से यह अधिकार राज्य सरकार को चला गया है।
अब सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि वह ऐसा निर्णय दे? सुप्रीम कोर्ट अपना यह अधिकार अनुच्छेद 142 से मानता है। वास्तव में संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 141 और 142 सुप्रीम कोर्ट को बहुत व्यापक अधिकार देते हैं।
इस अधिकारों का उद्देश्य है कि कोर्ट औपचारिकताओं से परे जाकर जनता को न्याय दिला सके। बहुत बार इन अनुच्छेदों का उपयोग न्याय का अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में मदद्गार हुआ है। अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में अनुच्छेद 142 का उपयोग किया था जिसकी प्रशंसा हुई थी। पर, इन अनुच्छेदों का प्रयोग कर कोर्ट ने कई ऐसे निर्णय भी दिए हैं जिनके द्वारा कार्यपालिका या विधायिका का काम कुछ हद तक उसने किया है। अत्यधिक ‘न्यायिक सक्रियता (judicial activism)’ कह कर इसकी आलोचना भी की जाती है। 1 अगस्त 2024 का निर्णय भी इसी श्रेणी में आ गया है।
भारत में आरक्षण संबंधी क्या प्रावधान हैं?
आरक्षण का अर्थ होता है सरकारी सेवाओं, कॉलेज और विधान सभाओं में समाज के कुछ विशेष वर्गों को प्रतिनिधित्य दिया जाता है। इसका उद्देश्य होता है समाज में समानता लाना। ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से कई वर्ग ऐसे होते हैं जिन्हें उचित अवसर नहीं मिल पाया था, को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े रह गए था, उन्हें विशेष अवसर देना ताकि वह भी सामान्य वर्ग के हैसियत तक पहुँच सके। सामान्य शब्दों में कहें तो ऐतिहासिक रूप से जिन समुदायों के साथ अन्य हुआ है, जिनको समाज में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, उन्हें समानता देने के लिए अवसर देना।
संविधान का अनुच्छेद 16, राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति से सम्बंधित विषयों में अवसर की समानता की बात करता है। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे, यदि राज्य को लगता है कि नियुक्तियों में ‘सामाजिक’ और ‘शैक्षणिक’ रूप से पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं है तो उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। अनुच्छेद 15 (4), 16 (4) और 340 (1) में ‘पिछड़े वर्ग’ शब्द का उल्लेख मिलता है। अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) में प्रावधान किया गया है कि राज्य द्वारा सामाजिक और शैक्षिक रूप से ‘पिछड़े वर्गों’ के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान किया जा सकता है या विशेष सुविधाएँ दी जा सकतीं हैं।
अनुसूचित जाति और जनजाति ‘सामाजिक’ और ‘शैक्षणिक’ रूप से पिछड़ा वर्ग था। इसलिए 1950 में 10 वर्षों के लिए इनको आरक्षण दिया गया। यह ‘अस्थायी’ प्रावधान था जिसे तब से आज तक 10-10 वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा है।
संविधान में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ शब्द का प्रयोग नहीं है। बल्कि ‘सामाजिक’ और ‘शैक्षणिक’ रूप से पिछड़े लोगों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार सरकार को दिया गया है।
प्रसिद्ध मंडल आयोग ने पहली बार ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) को अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत आरक्षण देने की बात की। विश्वनाथ परताप सिंह की सरकार ने इस आयोग की मांगों को अंशतः स्वीकार करते हुए 1992 में ओबीसी के लिए सरकारी नियुक्तियों में 27% आरक्षण देने की घोषणा की। देशभर में इस आरक्षण का घोर विरोध हुआ। सवर्ण छात्रों ने इसके विरोध में उग्र आंदोलन और आत्मदाह करना शुरू किया। सुप्रीम कोर्ट में कई पिटीशन फ़ाइल हुए। बाद में नरसिम्हा राव सरकार ने सवर्ण छात्रों के गुस्सा को कम करने के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण सवर्ण गरीबों को देने की घोषणा की। इन्दिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर का सिद्धान्त दिया। इसके तहत ओबीसी के उन लोगों के बच्चों को 27 प्रतिशत का आरक्षण नहीं मिलता जिनके माता पिता क्रीमी लेयर में आते। वर्तमान स्टेट ऑफ पंजाब वर्सेस देवेंद्र सिंह एंड अदर्स केस में कोर्ट ने क्रीमी लेयर का सिद्धान्त एससी/एसटी पर भी लागू कर दिया है जिसे पहले 2004 में मना कर चुका था।
1992 में कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण लोगों के लिए 10 प्रतिशत के आरक्षण को खारिज कर दिया था। लेकिन बाद में मोदी सरकार के समय 9 जनवरी, 2019 को संसद द्वारा 103वां संविधान संशोधन अधिनियम 2019 पारित किया गया। यह अधिनियम आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से संबंधित व्यक्तियों को सार्वजनिक सेवाओं में सीधी भर्ती और शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन के विषय में 10% आरक्षण का प्रावधान करता है।
वर्तमान में देश में आरक्षण 59.35 प्रतिशत है। 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों यानि ईडब्ल्यूएस को, 27 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी को, 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति यानि एससी को और 7.50 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति यानि एसटी को दिया जाता है। अर्थात केवल 40.5 प्रतिशत ही यहाँ अनारक्षित वर्ग के होते हैं।
ओबीसी में किसी को क्रीमी लेयर मनाने के क्या आधार हैं?
क्रीमी लेयर की सीमा 1993 में शुरू की गयी थी और उस समय 1 लाख/वर्ष की आय वाले लोग इसमें शामिल किये गये थे। बाद में इस सीमा को बढाकर 2004 में 2.5 लाख रुपये, 2008 में 4.5 लाख रुपये, 2013 में 6 लाख रुपये और 2017 में 8 लाख रुपये सालाना आय कर दिया गया है। अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने यह आय सीमा बढ़ा कर 15 लाख करने की सिफ़ारिश की है लेकिन यह अभी लंबित ही है।
आय सीमा के साथ कुछ अन्य शर्तें भी हैं अर्थात निम्नलिखित पदों पर अगर कोई व्यक्ति है तो उनके बच्चों को आरक्षण नहीं मिलेगा:
1. संवैधानिक पद धारण करने वाले व्यक्ति: इसमें राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायधीश, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और मुख्य निर्वाचन आयुक्त।
2. केन्द्रीय और राज्य सेवाओं में कार्यरत ग्रुप A, ग्रुप B अधिकारी, PSUs, यूनिवर्सिटीज, बैंकों, बीमा कंपनियों के पदस्थ अधिकारी. ध्यान रहे यह नियम निजी कंपनियों में कार्यरत अधिकारियों पर भी लागू होता है।
3. इंजीनियर, डॉक्टर, सलाहकार, कलाकार, लेखक और अधिवक्ता इत्यादि।
4. सेना में कर्नल या उससे ऊपर की रैंक का अधिकारी या वायुसेना, नौसेना और पैरामिलिटरी में समान रैंक का अधिकारी।
5. उद्योग, वाणिज्य और व्यापार में लगे व्यक्ति।
6. शहरी क्षेत्रों में जिन लोगों के पास भवन है, जिनके पास एक निश्चित सीमा से अधिक रिक्त भूमि या कृषि भूमि है।
7. जिन लोगों की सालना पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है। इस आय में वेतन और कृषि से होने वाली आय शामिल नहीं है।
अभी तक इस दिशा में क्या प्रयास हुए थे?
हाल में ही केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इस विषय में सुझाव मांगने (reference) के लिए कहा था कि “क्या क्रीमी लेयर का सिद्धान्त अनुसूचित जाति/जनजाति के पदोन्नति में आरक्षण के मामले में लागू होता है? (‘whether the creamy layer concept should apply or not to the Scheduled Castes (SCs)/Scheduled Tribes (STs) while providing them reservation in promotions’) पदोन्नति मामले में आरक्षण का सिद्धान्त सुप्रीम कोर्ट के 2006 के सेस एम नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ M. Nagaraj & Others vs Union of India case (2006) प्रशासित होता है।
इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ, नौ जज बेंच, 1992- एससी/एसटी पिछड़े वर्गों में सबसे अधिक पिछड़े हुए हैं।