आध्यात्म क्या है?

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जब हम आध्यात्म की बात करते हैं तो सबसे पहले तो यही प्रश्न आता है कि आध्यात्म क्या है? आध्यात्म के विषय में एक विशेष बात यह है कि जितना जरूरी यह जानना है कि यह क्या है, उतना ही जरूरी यह जानना भी है कि यह क्या नहीं है। क्योंकि प्रायः इसे धर्म या किसी अन्य चीजों से जोड़ कर देखा जाता है। वास्तव में आध्यात्म का अर्थ किसी विशेष पूजा विधि, आस्था या आचरण से नहीं है। इसका संबंध जन्म और मृत्यु से भी नहीं है। बल्कि उन चीजों से हैं जिसे मृत्यु भी छीन नहीं सकती, जो हमेशा मेरे साथ रहता है। अर्थात आध्यात्म का संबंध “मैं” से है, “मुझ” से है। यह “मैं” शरीर से भिन्न है। यही “मैं’ ‘सत्य’ है, इसे ही आस्तिक लोग ‘ईश्वर’ और नास्तिक ‘ऊर्जा’ कहते हैं। उपनिषद के कथन “अहम ब्रह्मास्मि” अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ, का आशय यही है।

यह शरीर तो प्रकृति से कर्ज लिया गया है जिसे मृत्यु के बाद प्रकृति वापस ले लेगी। उस समय मेरे पास क्या बचेगा, उसी को जानना और प्राप्त करना आध्यात्म है। संक्षेप में अपने अस्तित्व के सार की खोज ही आध्यात्म है। ध्यान, प्रार्थना, चिंतन इत्यादि इसमें सहायक हो सकते हैं क्योंकि ये व्यक्ति को आंतरिक विकास के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन ये रास्ता हैं, लक्ष्य नहीं, साधन हैं, सध्य नहीं। आस्तिक लोग दैवीय प्रभुता के साथ अपने को एकाकार मानते है तो नास्तिक प्रकृति या ब्रह्मांड के साथ। किन्तु सबके मूल में एक बृहत्तर समष्टि से साथ अपने “स्व” को एकात्म करने का भाव होता है।

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इसलिए आध्यात्म के लिए किसी शारीरिक क्रियाकलाप, यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखना यानि आस्तिक होना, भी आवश्यक नहीं है। भौतिक विज्ञानी-दार्शनिक फ्रित्जोफ़ काप्रा, केन विल्बर आदि आध्यात्म की व्याख्या क्वान्टम भौतिकी के आधार पर करते हैं। आस्तिक जिसे “दैवीय अनुभव” या “दैवीय सत्ता” का नाम देते हैं, नास्तिक उसे “ऊर्जा का प्रवाह” या “प्राकृतिक सत्ता” कहते हैं।

यद्यपि विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक अवधारणा में आध्यमिकता को प्रायः एक “आध्यामिक मार्ग” के रूप में स्वीकार किया गया है। चूँकि आस्तिक लोग “स्व” या “आत्म्न” को आत्मा के रूप में देखते हैं। आत्मा परमात्मा के अंश के रूप में प्रत्येक जीव में उपस्थित होता है। इसलिए वे “स्व” को खोज, जो कि आध्यात्म का मौलिक तत्त्व है, को ईश्वर अथवा सत्य के खोज और प्राप्ति के समानार्थक शब्द के रूप में मानते हैं। इसलिए भ्रांतिवश आध्यात्म को धर्म से जोड़ कर देखने की प्रवृति हो गई है।

बहुत से लोग आध्यात्म को मृत्यु से जोड़ कर देखते हैं। पर, यह मान्यता भी एकांगी है। मृत्यु तो जन्म का सहज परिणाम है। सनातन हिन्दू धर्म में  मृत्यु ही नहीं बल्कि जन्म और इन दोनों के बीच के समय यानि जीवन काल, को भी दुख रूप माना गया है, जिसका कारण व्यक्ति की “कामनाएँ” होती है। इसीलिए ऋषि-मुनि जन्म-मृत्यु के अनवरत चक्र से मुक्ति हेतु प्रयत्न करते थे। पर, जन्म और मृत्यु- दोनों ही शरीर की होती है। आत्मा, जिसे कुछ लोग चेतना या “स्व” भी कहते हैं, तो जन्म-मरण से सर्वथा रहित होती है। गीता में भगवान कृष्ण ने भी इसी द्वैतवाद यानि शरीर और आत्मा- के भिन्न अस्तित्व को प्रतिपादित किया है।

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      आध्यात्म का संबंध तो जीवन-मरण से परे चेतना से होता है। यह जन्म-मृत्यु को सहज भाव से स्वीकार करता है। शरीर यद्यपि नश्वर है, पर अनश्वर सत्ता को जानने और पाने का साधन यह नश्वर शरीर ही है। अगर हम शरीर की नश्वरता को सहज भाव से स्वीकार कर लेंगे तो मृत्यु भी सहज स्वीकार्य होगी। यह नश्वर शरीर भी हमे प्रकृति से मिला है। यह विशाल प्रकृति का एक छोटा, लगभग नगण्य- हिस्सा है। शरीर और प्रकृति के इसी संबंध को अनवरत याद रखने के लिए संभवतः आध्यात्मिक लोग प्रकृति के समीप रहना चाहते हैं।

      शरीर से भिन्न मेरा जो अस्तित्व है, वह शाश्वत है, जन्म-मरण, जरा-व्याधि आदि से मुक्त है, वह सत्य है, वह आनंदरूप है। अगर आध्यात्म को हम इस रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो इसका सहज निष्कर्ष यह होगा कि हमारा आत्मिक संसार ही आनंद का स्रोत है। इसके लिए हमे किसी बाह्य उपादान की आवश्यकता नहीं है।

      ऐसे में शरीर संबंधी कोई दुख-सुख हमे विचलित नहीं कर पाएगा, अपनी या किसी अपने की मृत्यु से भी हम विचलित नहीं होंगे। संभवतः यही कारण रहा हो कि गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंद सिंह, रामानुजाचार्य जैसे व्यक्तियों की आध्यात्मिकता ने उन्हें वह सहनशक्ति दी, जिससे वे भयंकर यातनाओं से भी विचलित नहीं हों सकें। जबकि सामान्य व्यक्ति तो एक छोटी से बीमारी, अंगहीनता या किसी परिजन की मृत्यु से भी विचलित हो जाता है। इस दृष्टि से देखें तो आध्यात्म मृत्यु के बाद ही नहीं बल्कि जीवन काल में भी हमें आनंदपूर्वक जीने के योग्य बनाता है।          

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