अहल्या: आत्मबल से आत्मसम्मान की एक प्रेरक गाथा  

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सिद्धाश्रम से मिथिला जाने के क्रम में राम ने जो सबसे प्रसिद्ध कार्य रास्ते में किया, वह है अहल्या को शाप मुक्त करना। अहल्या रामायण की एक ऐसी पात्र है जो एक तरफ तो “व्यभिचारिणी” होने के कारण पति द्वारा दंडित हुई। तो दूसरी तरफ सती और “पाँच कन्या” में से एक के रूप में पूजी भी गई। यह विसंगति उसके चरित्र को जिज्ञासा का विषय बनाता है।

पंचकन्या                                 

अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।

पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥ब्रह्म पुराण3.7.219

अर्थात अहल्या (ऋषि गौतम की पत्नी), द्रौपदी (पांडवों की पत्नी), तारा (वानरराज बाली की पत्नी), कुंती (पांडु की पत्नी) तथा मंदोदरी (रावण की पत्नी)- इन पाँच कन्याओं का नाम स्मरण करने से समस्त पापों का नाश होता है।

पाँच कन्याओं की यह सूची बहुत ही रोचक है क्योंकि ये सभी विवाहित थीं और एक से अधिक पुरुषों से इनके संबंध थे। फिर भी इन्हें “कन्या” (virgin) के समान पवित्र और “सती” माना माना गया। यह भारत में सती के आम धारणा के बिल्कुल विपरीत है। स्पष्ट है कि “सती” की परिभाषा “एक पुरुष भोग्या” से बिल्कुल अलग थी।

       इन कन्याओं में पहली है अहल्या। अहल्या अगर पहली “कन्या” के रूप में सम्मानित है, तो साथ ही वह महाकाव्यों और पुराणों की संभवतः सबसे प्रसिद्ध “व्यभिचारिणी” भी है। जिसे उसके पति ने “व्यभिचार” (adultery) के कारण ‘दंडित’ भी किया था।

       रामायण मे अहल्या के केवल शाप और राम जी द्वारा उससे मुक्ति का ही वर्णन है। इससे पहले के उसके जीवन के विषय में जानकारी कई ग्रंथों में छिटपुट रूप से मिलती है। लेकिन कहीं भी अहल्या द्वारा कहा गया एक शब्द भी नहीं मिलता है जिससे हमे उसके मनोभावों का कुछ पता चल सके। इस सभी ग्रंथों में अहल्या के विषय में जो कथा मिलती है, वह इस प्रकार है:

अहल्या का कुल

       अहल्या को कहीं ब्रह्मा की मानस पुत्री तो कहीं सोमवंश में उत्पन्न कहा गया है। वह ब्रह्मा जी द्वारा बनाई गई संभवतः सबसे सुंदर स्त्री थी। उसकी सुंदरता के कारण बहुत-से पुरुष उससे विवाह के लिए इच्छुक थे, जिनमे देवराज इंद्र भी थे।

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अहल्या का विवाह

       ब्रह्मा जी को उसके लिए योग्य वर की चिंता हुई। उन्होने यह तय किया कि जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा कर लेगा, उससे ही उसका विवाह होगा। इंद्र ने सबसे पहले परिक्रमा कर लिया। लेकिन जब ब्रह्मा जी उसे विजेता घोषित करने ही वाले थे, तब तक वहाँ देवर्षि नारद आ गए।

       नारद जी ने बताया कि ऋषि गौतम प्रतिदिन पूजा करने के बाद गायों की परिक्रमा करते थे। उस दिन जब वे इस तरह परिक्रमा कर ही रहे थे, तभी गाय ने एक बछिया को जन्म दिया। शास्त्रों के अनुसार प्रसव काल में गाय की परिक्रमा का पुण्य समस्त पृथ्वी की परिक्रमा के बराबर होता है। इसलिए गौतम ने इन्द्र से पहले यह परिक्रमा पूर्ण किया था।

       ब्रहमा जी ने यह भी सोचा कि स्त्री का सौंदर्य सामान्य आसक्त पुरुषों को अपने कर्तव्य पथ से डिगा सकता है। इसलिए अहल्या जैसी सुंदर स्त्री किसी ऐसे पुरुष को मिलनी चाहिए जिसका अपने मन पर नियंत्रण हो।

शाप से पहले का जीवन

       तदनुसार अहल्या का विवाह ऋषि गौतम से हुआ। अपने पति ऋषि गौतम के साथ अहल्या उनके आश्रम में रह कर उनकी तरह ही तपस्विनी का जीवन बिता रही थी। सौंदर्य के साथ उसमे शील और सदाचार भी था। जिस कारण गौतम अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे।

       इस युगल के बच्चे भी हुए। पर, केवल उनके बड़े बेटे शतानिक मुनि का ही विवरण रामायण में मिलता है। ये शतानक मुनि सीता के पिता जनक के कुलगुरु थे।

अहल्या को शाप

       एक दिन किसी समारोह में इन्द्र ने फिर उन्हे देखा। वे पहले से ही उस पर आसक्त थे। उस रात उन्होने धोखे से गौतम ऋषि को सुबह होने का आभास करा दिया। गौतम सुबह समझ कर स्नान के लिए नदी पर चले गए। तब तक उनके वेश में इन्द्र अहल्या के पास आ गया।

       गौतम वेशधारी इन्द्र ने अहल्या से संबंध बनाया। जब वह निकलने लगे, तभी गौतम भी आ गए। दरअसल, नदी पर पहुँचने पर उन्हे अपनी भूल का एहसास हो गया (कि अभी सुबह नहीं हुई है) और वे वापस लौट आए। अपने ही वेश में अपने आश्रम से इन्द्र को निकलते देख कर उन्हे सारी बात समझ आ गई। उन्होने इन्द्र और अपनी पत्नी- दोनों को ही शाप दे दिया।

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       इस संबंध में कथा का दो रूप (version) प्राप्त होते हैं। एक के अनुसार, अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया। पर यह सोच कर उसे गर्व हो गया कि देवराज इन्द्र भी उस पर आसक्त हैं। और उसने जानबूझ कर सहमति दी। इसी कारण गौतम ने दोनों को शाप दिया।

       दूसरे version के अनुसार, अहल्या इन्द्र को नहीं पहचान पाई (क्योंकि वह उसके पति गौतम के वेश में आया था) और अनजाने में पति समझ कर सहमति दी। गौतम ने इस क्रोध में शाप दिया कि एक सती नारी होकर उसने अपने पति और पर-पुरुष में अन्तर नहीं पहचाना।

शाप से मुक्ति

       इस शाप तक अहल्या एक साधारण ऋषि पत्नी की तरह थी। वह पूरी तरह अपने पति की छाया में थी। पति से अलग उसकी कोई पहचान नहीं थी। लेकिन इस शाप के बाद उसका वास्तविक मजबूत पक्ष उभर कर सामने आया।

       गौतम पत्नी से प्रेम करते थे। लेकिन इस घटना से वे इतने आहत हुए कि आश्रम छोड़ कर हिमालय में तपस्या करने चले गए।

       वाल्मीकि रामायण में अहल्या को “प्राणी मात्र के दृष्टि से अदृश्य रहने का” का शाप था। जबकि तुलसीकृत रामचरित मानस और अन्य कुछ ग्रंथों के अनुसार “पत्थर बन जाने” का शाप था। लेकिन दोनों version के अनुसार उसका उद्धार राम के द्वारा ही होना था।

       जब राम अहल्या के आश्रम में आए तो वह आश्रम पूरी तरह वीरान था। वहाँ इंसान तो क्या किसी जीव-जन्तु का भी नामों-निशान नहीं था। इस विरान में अकेली बैठी वह कठोर तपस्या कर रही थी। उसने राम का विधिवत पूजन और आतिथ्य-सत्कार किया।

राम ने अहल्या का चरण स्पर्श किया। (तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार चूँकि वह पत्थर थी, इसलिए राम ने अपने पैरों की धूलि उस पर गिराया, जिससे वह अपने पूर्व रूप को प्राप्त कर सकी। किसी स्त्री को पैर से स्पर्श करना चूँकि मर्यादा के विरुद्ध होता इसलिए राम ने उसे स्पर्श नहीं किया बल्कि अपने पैरों का धूल उस पर गिराया। लेकिन पत्थर बनने का यह विवरण तुलसीदास जी ने संभवतः अहल्या के चरित्र को लांछित होने से बचाने के लिए दिया है।

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अहल्या की तपस्या

       अपने कठोर तपस्या से अहल्या ने न केवल मुक्ति पाया बल्कि सम्मान भी पाया। राम से मिलकर शाप मुक्त हो जाने के बाद वह हिमालय में जाकर पति से मिली। पति ने बहुत ही प्रेम और सम्मान से उसे अपनाया।

       वाल्मीकि भी अहल्या का स्मरण बहुत सम्मान से करते हैं। और कहते हैं कि यह पद अहल्या ने अपनी “तपस्या” से पाया था, राम की कृपा या किसी और कारण से नहीं। गौतम का भाव भी इसी तरह का था। इस तरह अहल्या की कथा का सुखांत होता है।

       लेकिन यही अंत इस कथा को इतना आकर्षक बनाता है। विश्व के अन्य संस्कृतियों में स्त्रियों को व्यभिचार के लिए पत्थर मारने, तलवार से काटने, कोड़े मारने आदि जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं। लेकिन व्यभिचार को “नैतिक विचलन” मान कर उसे सुधारने का अवसर देने का ऐसा उदाहरण बहुत कम हैं। 

       दूसरी तरफ अहल्या ने भी सहनशक्ति और मानसिक मजबूती का परिचय दिया। इतनी बदनामी से उसमें दैन्य नहीं आया बल्कि उसका निश्चय दृढ़ हुआ। उसकी तपस्या इतनी कठोर थी कि ऋषि-मुनियों में उसे एक तपस्विनी होने के नाते सम्मान मिला, केवल गौतम की पत्नी होने के कारण नहीं। उसके भूल को न केवल क्षमा किया गया बल्कि “पाँच कन्याओं” में स्थान देकर सम्मानित भी किया गया।

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